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________________ ( १३० ) वस्तुतत्वना हेयपणा, उपादेयपणा अने उपेक्षणीयपणानो छे निश्चय जेमां एवं छे. ए " तत्त्व संवेदन " ज्ञान सम्यक् प्रकारे पुरुषने, संघयण आदिकना सामर्थ्यने अनुसारे विरतिरूपी अनंतर फळ तथा परंपराए मोक्षफळने देनारुं छे. हवे ते ज्ञानना लिंगादिकने प्रतिपादन करता थका कहे छे न्याय्यादौ शुद्धवृत्यादि - गम्यमेतत्प्रकीर्तितम् । सज्ज्ञानावरणापायं महोदयनिबंधनम् ॥ ७ ॥ अर्थ- मोक्ष मार्ग आदिकने विषे शुद्ध प्रवृत्ति आदिथी जे अनुमान कराय छे, तेने तत्त्व संवेदन ज्ञान कहेलुं छे, तथा ते उत्तम ज्ञानना आवरणनो क्षयोपशम करनारुं अने मोक्षना कारण रूप छे. ७. टीकानो भावार्थ-नीति सहित एवा सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग तेने विषे अतिचार रहित प्रवृत्ति आदिके करीने जे ज्ञाननी अनुमिति थाय छे, तेने ज्ञाननुं स्वरूप जा नाराओए " तत्त्वसंवेदन " ज्ञान कहेलुं छे; हवे ते ज्ञान केवा हेतु - बाळु छे ? ते कहे छे के, उत्तम एवं जे आभिनिबोधादिक ज्ञान, तेना आवरणना क्षयोपशमथी थनारुं अने निर्वाणना कारणरूप फळने देनारुं छे. आ अटकने संपूर्ण करता थका उपदेश कहे छेएतस्मिन् सततं यत्नः, कुग्रहत्यागतो भृशम् ॥ मार्गश्रद्धादिभावेन, कार्य आगमत्तत्परैः ॥ ८ ॥
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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