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________________ ( १२७ ) दृष्टिनी जे बुद्धि ते 'मति अज्ञान' छे. पण मतिर्मा कइ फेरफार नथी. श्रुत ज्ञान ने श्रुत अज्ञान माटे पण ए प्रमाणेज समजवुं." हवे ते " विषय प्रतिभास " ज्ञान शुंफळ आपे छे ? ते कहे छे. ते पोताने अने परने आलोक अने परलोक संबंधी महा अपायोना hai, महा कष्टोना कारणरूप थाय छे. केमके तत्त्वथी ते अज्ञानज छे, अने अज्ञान छे ते महा अपायनुं कारण छे. कहां छे केअज्ञानं खलु भो कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वोपायेभ्यः ॥ अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १ ॥ " अज्ञान छे ते, खरेखर क्रोधादिक सर्व अपायोथी पण कष्टकारी छे, केमके अज्ञानथी विंटाएलो माणस हित अथवा अहित कार्यने जाणी शकतो नथी. " हवे बीजा "आत्मपरिणतिमत्" ज्ञानतुं स्वरूप देखाडवा माटे कहे छे. पातादिपरतंत्रस्य तद्दोषादावसंशयम् ॥ अनर्थद्याप्तियुक्तं चा- त्मपरिणतिमन्मतम् ॥ ४ ॥ अर्थ - पतन आदिकथी परतंत्र थपला प्राणीने तेना दोषादिकने विषे संशय विनानुं तथा अनर्थ आदिकनी प्राप्तिवालुं " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानतुं छे. ४. टीकानो भावार्थ - " पातादिपरतंत्रस्य " केतां नीची अने ऊंची गति माटे परतंत्र थएला एटले विषय अने कषायादिके वश करेला प्राणीने, ते कषाय आदिकथी थता कर्मबंध अने दुर्गति आदिक
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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