SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०२ ) अहीं जिनालय करवा देतो नथी, केमके अहीं मिथ्याष्टिओनुं बळ वधारे छे. माटे आप एवो काइक यत्न करो के जेथी अहीं आशिवाल. यथी पण उंचं अने मनोहर जिनचैत्य करी शकाय. आ कार्यमा मात्र आप ज समर्थ छो, माटे आपने अमे विनंति करीए छीए." आ प्रमाणे श्रावकोनी विज्ञप्ति सांभळीने मुनीश्वर श्री सिद्धसेन सूरि विहार करी अवंति नगरीमा आव्या, अने नवा अद्भुत चार श्लोको बनावीने, हाथमा श्लोकनो कागळ राखी विक्रम राजाना महेलना द्वार पासे आवी द्वारपाळ मारफत एक श्लोक राजा पासे मोकल्यो. ते श्लोक आ प्रमाणे हतो: दिदृक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥ अर्थ-आपने जोवानी इच्छावाळो भिक्षु हस्तमां चार श्लोक राखीने द्वारपाले निषेध करवाथी बारणेज उभो छे, ते आवे के जाय ? ___ आ श्लोक सांभळीने राजाए आश्चर्य पामी तेना जवाबमा सामो श्लोक मोकल्यो के दीयतां दश लक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥ अर्थ-आ भिक्षुकने दश लाख सोनामहोरो तथा चौद शासन,
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy