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________________ संविग्नपाक्षिकलक्षणम् । उपदेशमाला NIमाणे प्रत्युत रोषात्सर्वस्तैः संभूयात्मनो गुणवत्त्वख्यापनाय हंसकल्पतामारोप्य लोकमध्ये स एव निर्गुणतया प्रख्याप्य काककल्पः विशेषवृत्तौ | क्रियत इत्यर्थः ॥ ५१० ॥ तदर्य सुस्थितस्योपदेशो, दुस्थितेन तु यद्विधेयं तत्काक्वा प्राह परिचिंतिऊण निउणं, जइ नियमभरो न तीरए वोहुँ। परचित्तरंजणेणं, न वेसमित्तण साहारो ॥ ५११ ॥ ॥५२०॥ निच्छयनयस्स चरणस्सुवग्याए नाणदसणवहोऽवि । ववहारस्स उ चरणे, हयम्भि भयणा उ सेसाणं ॥ ५१२॥ सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओऽवि गुणकलिओ। ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुड् ॥ ५१३ ॥ संविग्गपक्खियाण, लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणाऽवि जेण कम्म विसोहंति ॥ ५१४ ॥ सुद्धं सुसाहुधम्म, कहेइ निंदइ य निययमाया। सुतवस्सियाण पुरो, होइ य सव्वोमरायणीओ ॥ ५१५ ॥ वंदइ नय वंदावइ, किइकम्म कुणइ कारवे नेय। अत्तट्ठा न वि दिक्खइ, देइ सुसाहूण बोहे ॥ ५१६ ॥ ओसन्नो अतट्ठा, परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो। तं छुहइ दुग्गईए, अहिययरं बुड्डइ सयं च ॥ ५१७॥ जह सरणमुवगयाण, जीवाण निकितए सिरे जो उ । एवं आयरिओऽविहु, उस्मुत्तं पन्नवंतो य ॥ ५१८ ॥ सावज्जजोगपरिवज्जगा उ सव्वुत्तमो जईधम्मो। बीओ सावग्गधम्मो, तइओ संविग्गपक्खपहो ॥ ५१९ ॥ सेसा मिच्छद्दिट्ठी, गिहिलिंगकुलिंगदव्वलिंगेहिं । जह तिण्णि य मुक्खपहा, संसारपहा तहा तिणि ॥ ५२० ॥ ___ अयमाशयो निर्गुणस्य लिंगं धारयतो जनमिथ्यात्वोत्पादनहेतुत्वेन गाढतरानन्तसंसारावाप्तेस्तत्परित्याग एव श्रेयान् उक्तं हि प्राक् 'मुत्तूण तो तिभूमि सुसावगत्तं वरतरागं' ति ॥ ५०१ ।। स्यादेतद्यदि नाम चारित्रमनेन विनाशितं तथापि ज्ञानदर्शने स्तः, ततश्च नैकान्तेन नैर्गुण्यं तथा च लिङ्गत्यागः पर्यवस्येन्नैवं चरणाभावे तत्त्वतस्तयोरप्यभावात् , यत आह-“निच्छय" गाहा । निश्चयनय COPPERCED ॥५२०॥
SR No.023515
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages574
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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