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गृहिप्रसंगे
उपदेशमालाविशेषवृत्तौ । ॥ ३०८॥
वारत्रकमुनि
कथा।
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महाविभूईए कारियविवाहो । विवरियपोलिदुवारे, तत्थेव रहाविओ स ठिओ ॥ ९३ ।। हयगयरहाइ जं किंपि, लूडियं आसि तं असेसं पि । अप्पियमन्नंपि बहुं, सकारेऊण से दिन्नं ॥ ९४ ।। पोढप्परूढपेम्मा, अंगारवई कयाइ तेण रहे। आपुच्छिया जहा कह, तुह पिउणा तुच्छसेन्नेण ।। ९५ ।। अइबलकलिओ वि अहं, पराजिओ सा कहेइ सब्भावं । मं भीसा डिभाणं, दिन्ना वारत्तमहरिसिणा ॥ ९६ ।। तं चेव निमित्तं मंतिऊण, नेमित्तिएण मह पिउणो । कहियं तमेव विजई, महरिसिणो नऽनहा वाणी ॥ ९७ ॥ अवि चलइ मेरुचूला, अवि वरुणदिसाए उग्गए सूरो। अन्नपओयणमवि वयणमन्नहा होइ न मुणीणं ॥ ९८ ॥ लोइय मुणीण वाणी, जह जह अत्थो तहा तहा होइ । लोउत्तराण तेसि तु, होइ वाणी जह तहत्थो ।। ९९ ।। इय सुणिऊणं पज्जोयपत्थिओ पभायंमि । वारत्तयमुणिपासे, पहसंतो पभणए एवं ॥ १०॥ तुह पाए पणमामो, परमनिमित्ताइ वागरंतस्स । वारत्तयवारितय, पाणपणासपसत्तंपि ॥ १॥ दिन्नुवओगोऽणुवओग-उग्गयं मुणइ डिंभमं भी(सी)सं(म)। वारत्तमहरिसी तो, आलोयइ गरहइ तमत्थं ॥ २॥ हा हा महापमाओ, जमपरिभाविय पभासियं एयं । पज्जोयस्स वि जाओ, जमेवमुवहासठाणंति ॥ १०३ ।। इति वारत्तयमुणिकहा ॥ ११३ ॥ तदयं सामान्येन गृहस्थसम्बन्धी दोषोऽभिहितः। अधुना युवतिसम्बन्धमधिकृत्याहसब्भावो वीसंभो, नेहो रइवइयरो अ जुवइजणे । सयणघरसंपसारो, तवसीलवयाई फेडिज्जा ॥ ११४ ॥ जोइसनिमित्तअक्खरकोउआएसभूइकम्मेहि। करणाणुमोअणाहि अ, साहुस्स तवक्खओ होइ ॥११५ ।। जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ । थोवो वि होइ बहुओ, न य लहइ धिइं निरंभतो ॥११६ ॥ जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणेऽवि अचिरेण सो चयइ । जह जह कुणइ पमाय, पिल्लिज्जइ तह कसाएहिं ॥११७ ॥ जो निच्छएण गिण्हइ, देहच्चाएवि न य घिई मुअइ । सो साहेइ सकजं, जह चंदवडिंसओ राया ॥११८ ॥ सीउण्हखुप्पिवासं, दुस्सिज्जपरीसह किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तवं चरइ ॥ ११९ ॥
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॥३०८॥