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________________ बक्ता वास्तविकता का संकेत तक नहीं देना चाहता; साथ ही अपडुति में वक्ता का लक्ष्य प्रकृत (मुखादि ) की उत्कृष्टता घोतित करना है, जब कि व्याजोक्ति में वक्ता का लक्ष्य श्रोता को वास्तविकता से दूर अज्ञान में रखना है। ग्याजोक्ति तथा युक्ति:-(दे० भूमिका पृ० ३४-३५ )। (५२) स्वभावोक्ति (१) किसी पदार्थ-बालक, पशु आदि की चेष्टा या प्रकृाते की रमणीयता का यथार्थ वर्णन हो। (२) इस वर्णन में उसके विविध अंगों का सूक्ष्म चित्रण हो । (३) यह वर्णन चमत्कारयुक्त हो। (४) कवि ने इस वर्णन में अपनी प्रतिभा का समुचित प्रदर्शन किया हो तथा वह कोरा वैज्ञानिक विवरण न हो। स्वभावोक्ति तथा वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति:-दण्डी ने समस्त वाङमय को दो वर्गों में बाँटा है, एक स्वभावोक्ति दूसरा वक्रोक्ति ( या अतिशयोक्ति), स्वभावोक्ति यथार्थ पर आधत होने के कारण तथ्य के निकट होती है, जब कि वक्रोक्ति में कवि कल्पना या प्रौढोक्ति का विशेष प्रयोग करता है। यही कारण है कि कुछ आलंकारिकों ने स्वभावोक्ति को अलंकार मानने का खंडन किया है। (५३) भाविक (१) भाविक में अप्रत्यक्ष पदार्थों का प्रत्यक्षवत् वर्णन किया जाता है। (२) ये अप्रत्यक्ष पदार्थ या तो भूतकाल से संबद्ध हो सकते हैं या भविष्यत्काल से । (३.) अलंकाररत्नाकरकार शोभाकर तथा विमर्शिनीकार जयरथ ने उक्त दो कालविप्रकृष्ट भेदों के अलावा भाविक के दो भेद और माने हैं :-देशविप्रकृष्ट वस्तुओं का प्रत्यक्षवत् वर्णन स्वभावविप्रकृष्ट वस्तुओं का प्रत्यक्षवत् वर्णन। भाविक-स्वभावोक्ति:-दोनों में यथार्थ वर्णन होता है, किंतु मेद यह है कि स्वभावोक्ति में लौकिक वस्तु के सूक्ष्म धर्म का यथार्थ वर्णन होता है, जब कि भाविक में अप्रत्यक्ष वस्तु का प्रत्यक्षवत् वर्णन होता है तथा यहाँ स्वभावोक्ति की अपेक्षा विशिष्ट चमत्कार पाया जाता है। भाविक-श्रोतिमान् :-इन दोनों अलंकारों में अप्रत्यक्ष वस्तु का ज्ञान होता है। किंतु भ्रांतिमान में ज्ञान मिथ्या होता है, जैसे शुक्ति में रजत शान, जब कि भाविक में कवि का प्रत्यक्ष शान ठीक वैसा ही होता है, जैसा भूतकाल में था या भावी काल में होगा। साथ ही भ्रांतिमान सादृश्य पर आश्रित होता है, भाविक नहीं, भाविक में तो केवल कवि की भावना का अतिरेक पाया जाता है। (५४) उदात्त प्रथम उदात्त:(१) इसमें कवि किसी वस्तु के उत्कर्ष ( समृद्धथादि के उत्कर्ष ) का वर्णन करता है। (२) यह उत्कर्षवर्णन सदा अतिशयोक्तिमूलक होता है। (३) जिन वस्तुओं के उत्कर्ष का वर्णन किया जाय, वे सत् पदार्थ हों, कुत्सितपदार्थ न हों।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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