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________________ [ ७४ ] (६) यह सादृश्य साधर्म्यं या वैधर्म्यं किसी भी पद्धति से निर्दिष्ट हो सकता है । प्रतिवस्तूपमा-दृष्टान्त :- दोनों में दो स्वतन्त्रवाक्य होते हैं, एक में प्रकृत तथा दूसरे में अप्रकृत का निर्देश होता है। दोनों में सादृश्य गम्य होता है । किंतु प्रतिवस्तूपमा में साधारणधर्म एक ही होता है फिर भी उसका निर्देश भिन्न शब्दों में होता है, जब कि दृष्टान्त में दोनों वाक्यों. के साधारण धर्म सर्वथा भिन्न-भिन्न होते हैं, यद्यपि उनमें स्वयं में समानता पाई जाती है; अर्थात् प्रतिवस्तूपमा में धर्म में वस्तुप्रतिवस्तुभाव होता है, दृष्टांत में बिंबप्रतिबिम्बभाव। साथ ही दृष्टांत एवं प्रतिवस्तूपमा में एक महत्त्वपूर्ण भेद यह भी है कि प्रतिवस्तूपमा में कवि विशेष जोर केबल दो पदार्थों के धर्म पर ही देता है, जब कि दृष्टांत से वह धर्म तथा धर्मी दोनों के परस्पर संबंध पर जोर देता है । प्रतिवस्तूपमा - वाक्यार्थ - निदर्शनाः- दोनों अलंकारों में एक वाक्यार्थ तथा दूसरे वाक्यार्थे में समान धर्म के कारण सादृश्यकल्पना की जाती है, साथ ही इन दोनों में सादृश्य गम्य होता है। किंतु प्रतिवस्तूपमा में दोनों वाक्य परस्पर निरपेक्ष या स्वतन्त्र होते हैं, जब कि निदर्शना में वे परस्पर सापेक्ष होते हैं । निदर्शना में साधारण धर्म का निर्देश नहीं होता, श्रोता उसका आक्षेप कर लेता है, जब कि प्रतिवस्तूपमा में दोनों वाक्यों में साधारण धर्म का पृथक-पृथक निर्देश होता है ( १० ) दृष्टान्त ( १ ) दृष्टान्त भी गम्यौपम्यमूलक अलंकार है । ( २ ) इसमें भी दो वाक्य होते हैं, एक उपमेयवाक्य दूसरा उपमानवाक्य । ( ३ ) ये दोनों वाक्य स्वतन्त्र या परस्पर निरपेक्ष हों । (४) उपमेयवाक्य तथा उपमानवाक्य के धर्म भिन्न-भिन्न हों अर्थात् उनमें परस्पर बिंबप्रतिबिंबभाव हो । ( ५ ) यह बिंबप्रतिबिंब भाव न केवल धर्म में ही अपितु धर्मी ( प्रकृत तथा अप्रकृत पदार्थों ) में भी हो । ( ६ ) यह भी प्रतिवस्तूपमा की तरह साधर्म्यगत तथा वैधर्म्यगत दोनों तरह का हो सकता है । वैधर्म्यदृष्टान्त में उपमेय वाक्य या तो विधिपरक होता है या निषेधपरक तथा उपमानवाक्य उसका बिलकुल उलटा होगा । दृष्टान्त तथा प्रतिवस्तूपमा - ३० प्रतिवस्तूपमा । दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यासः - अर्थान्तरन्यास में भी दृष्टान्त तथा प्रतिवस्तूपमा की तरह परस्पर निरपेक्ष दो वाक्य होते हैं; किंतु दृष्टान्त औपम्यमूलक अलंकार है, जब कि अर्थान्तरन्यासको कुछ आलंकारिक तर्कन्यायमूलक अलंकार मानते हैं । दृष्टान्त तथा प्रतिवस्तूपमा में दोनों वाक्यों में परस्पर उपमानोपमेयभाव होता है, जब कि अर्थान्तरन्यास में दोनों वाक्यों में परस्पर समर्थ्य समर्थकमाव होता है । दृष्टांत में औपम्य की व्यंजना होने के कारण दोनों पदार्थ विशेष होते हैं, जब कि अर्थान्तरन्यास में एक पदार्थ सामान्य होता है एक विशेष । दृष्टान्त में दोनों वाक्यों के. धर्म में परस्पर बिंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है, जब कि अर्थान्तरन्यास में दोनों वाक्यों में परस्पर सामान्य विशेषभाव होता है । दृष्टान्त - अप्रस्तुतप्रशंसाः- दोनों अलंकारों में किया जाता है, किंतु दृष्टान्त में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत पदार्थों का प्रयोग दोनों का वाच्यरूप में प्रयोग होता है,
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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