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________________ [ ७२ ] आश्रित है, रूपक आहार्यज्ञान पर । भ्रांतिमान् में ज्ञाता को केवल अप्रकृत का ही ज्ञान होता है, जब कि रूपक में उसे दोनों (विषय तथा विषयी ) का ज्ञान होता है। आंतिमान् तथा मीलित - दोनों अलंकारों में किसी एक वस्तु का ज्ञान नहीं हो पाता, किंतु भ्रांतिमान् में शाता का विषय एक ही वस्तु होती है तथा उसे गलती से उसमें दूसरी समान वस्तु का मान होता है; जब कि मीलित अलंकार में ज्ञाता का विषय दो समानधर्मी वस्तुएँ होती हैं तथा इनमें से एक वस्तु इतनी बलवान् होती है कि वह समीपस्थ अन्य वस्तु को अपने आप में छिपा लेती है, फलतः शाता को दोनों का पृथक्-पृथक् ज्ञान नहीं हो पाता । ( ६ ) अपह्नुति ( १ ) यह भी अभेदप्रधान अलंकार है । कुछ आलकारिकों के मत से अपहृति केवल सादृश्य संबंध में ही होती है, किंतु दण्डी, जयदेव तथा दीक्षित सादृश्येतर संबंध में भी अपहुति मानते हैं । ( २ ) इसमें एक वस्तु (प्रकृत) का निषेध कर अन्य वस्तु (अप्रकृत) का आरोप किया जाता है। ( ३ ) अपहृति में प्रकृत का निषेध आहार्य होता है । ( ४ ) यदि निषेध स्पष्टतः 'न' के द्वारा होता है और निषेधवाक्य तथा आरोपवाक्य भिन्न-भिन्न होते हैं तो यहाँ वाक्यभेदवती अपइति होती है, इसे दीक्षित शुद्धापहृति कहते हैं । यदि निषेध, छल, कपट, कैतव आदि अपहुति वाचक शब्दों के द्वारा किया जाता है तो यहाँ दो वाक्य नहीं होते, इसे दीक्षित ने कैतवापति कहा है 1 ( ५ ) शुद्धा पति या वाक्यभेदवती अपह्नुति में या तो निषेधवाक्य पहले हो सकता है या आरोपवाक्य | ( ६ ) दीक्षित ने जयदेव के ढंग पर छेकापह्नुति, भ्रान्तापह्नुति तथा पर्यंस्तापछुति जैसे अपह्नुति भेदों की भी कल्पना की है। अपह्नुति तथा रूपक - दोनों अभेद प्रधान सादृश्यमूलक (विषय) पर अप्रकृत ( विषयी) का आरोप पाया जाता है। आश्रित है। किंतु अपति में प्रकृत का निषेध किया जाता है, जब नहीं किया जाता । अपह्नुति तथा व्याजोक्ति- दोनों अलंकारों में वास्तविक्ता का गोपन कर अवास्तविक वस्तु की स्थापना की जाती है । दोनों ही अलंकारों में वास्तविकता का निषेध ( या गोपन ) आहार्यज्ञान पर आश्रित होता है । किंतु प्रथम तो अपह्नुति सादृश्यमूलक अलंकार है, व्याजोक्ति गूढार्थ प्रतीतिमूलक अलंकार; दूसरे अपति में वक्ता प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत की स्थापना इसलिए करता है कि वह प्रकृत वस्तु का उत्कर्ष द्योतित करना चाहता है, जब कि व्याजोक्ति में वक्ता वास्तविक बात का गोपन कर उसी के समान लक्षण वाली अवास्तविक बात की स्थापना इसलिए करता है कि बह श्रोता से सच बात को छिपाकर उसे अज्ञान में रखना चाहता है । ( ७ ) तुल्ययोगिता अलंकार हैं तथा दोनों में प्रकृत दोनों में यह आहार्यज्ञान पर कि रूपक में प्रकृत का निषेध ( १ ) तुल्ययोगिता गम्यौपम्यमूलक अलंकार है । ( २ ) इसमें एक ही वाक्य में अनेक पदार्थों का वर्णन होता है, जिनमें कवि एकधर्माभिसंबंध स्थापित करता है । (३) धर्म का उल्लेख केवल एक ही बार क्रिया जाता
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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