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________________ [ ६७ ] अर्थश्लेषमूला तथा काकुमूला। मम्मट के मत से शब्दश्लेषमूला तथा काकुमूला वक्रोक्ति शब्दा. लंकार ही होंगे। अर्थश्लेषमूला वक्रोक्ति में वक्रोक्ति अलंकार न मानकर संभवतः मम्मटादि ध्वनिवादी व्यञ्जना व्यापार मानना चाहेंगे और इस तरह वहाँ ध्वनि या गुणीभूतव्यंग्य काव्य मानेंगे। वक्रोक्ति के लक्षणोदाहरण ग्रन्थ में देखे जा सकते हैं। शब्दालंकार के भी उदाहरण वे ही होंगे, हाँ 'भिक्षार्थी स क यातः सुतनुः' इत्यादि पद्य वक्रोक्ति शब्दालंकार का उदाहरण नहीं है, क्योंकि वहाँ शब्दपरिवृत्तिसहिष्णुत्व पाया जाता है। (५) पुनरुक्तवदाभास :-पुनरुक्तवदाभास के विषय में भी मतभेद है। अलंकारसर्वस्वकार रुय्यक इसे अर्थालंकार मानते हैं । मम्मट, शोभाकर मित्र, विश्वनाथ आदि इसे शब्दालंकार मानते हैं । वैसे मम्मट ने पुनरुक्तवदाभास का एक प्रकार वह भी माना है, जहाँ इसमें शब्दार्थोभयालंकारत्व पाया जाता है। __ जहाँ भिन्न भिन्न स्वरूप वाले ऐसे शब्द प्रयुक्त हों जिनका वस्तुतः एक ही अर्थ नहीं होता फिर भी आपाततः एक ही अर्थ प्रतीत होने से पुनरुक्ति जान पड़ती है, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है। उदाहरण चकासत्यंगनारामाः कौतुकानन्दहेतवः। तस्य राज्ञः सुमनसो विबुधाः पार्श्ववर्तिनः ॥ 'उस राजा के निकटवर्ती सुन्दर चित्तवाले पण्डित लोग, प्रशंसनीय अंगवाली सुन्दरी स्त्रियों के साथ क्रीडा का आनन्द भोगने वाले और नाच गान आदि के कौतुक ( चमत्कार ) तथा आनन्द (सुखोपभोग ) के पात्र बनकर, सुशोभित होते हैं।' ___ इस पद्य में 'अंगना-रामा, 'कौतुक-आनन्द' 'सुमनसः-विबुधाः' में आपाततः पुनरुक्ति प्रतीत होती है, किन्तु इनका प्रयोग भिन्न २ अर्थ में होने से यहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार है । (६)चित्रालंकार:-कभी कभी कवि किसी पद्यविशेष के वर्गों की रचना इस तरह की करता है कि उन्हें एक विशेष क्रम से सजाने पर कमल, छत्र, धनुप, हस्ति, अश्व, ध्वज, खड्ग आदि का आकार बन जाता है। इस प्रकार के चमत्कार को चित्रालंकार कहा जाता है। श्रेष्ठ कवि तथा आलोचक इसे हेय समझते हैं । अर्थालंकारों का वर्गीकरण:-अर्थालंकारों को किन्हीं निश्चित कोटियों में विभक्त किया जाता है। ये हैं:-१ सादृश्यगर्भ, २ विरोधगर्भ, ३ शृङ्खलावन्ध, ४ तर्कन्यायमूलक, ५ वाक्यन्यायमूलक ६ लोकन्यायमूलक ७ गूढार्थप्रतीतिमूलक । कय्यक के मतानुसार यह वर्गीकरण निम्न है : सादृश्यगर्भ-इस कोटि में सर्वप्रथम तीन भेद होते हैं :-भेदाभेदप्रधान, अनेदप्रधान तथा गम्यौपम्याश्रय । इनमें भी अभेदप्रधान के दो भेद होते हैं -आरोपमूलक तथा अध्यव. सायमूलक । (क) भेदाभेदप्रधान-उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण । ( ख ) अरोपमूलक अभेदप्रधान-रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान् , उल्लेख, अपहुति । (ग) अध्यवसायमूलक अभेदप्रधान-उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति । (घ) गम्यौपम्याश्रय-तुल्ययोगिता, दीपक ( पदार्थगत ), प्रतिवस्तूपमा दृष्टान्त, निदर्शना ( वाक्यार्थगत ), व्यतिरेक, सहोक्ति ( भेदप्रधान ), विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर (विशेषणवि.
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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