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________________ [ ६४ ] जब कि अलंकार 'रस' के धर्म न होकर केवल उपकारक होते हैं, तथा वे इसके साथ साक्षात संबंध न रख कर शम्दार्थ से संबद्ध होते हैं, साथ ही काव्य में वे आवश्यक नहीं होते। इसीलिए साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ ने अलंकार की परिभाषा निबद्ध करते समय इस बात का संकेत किया है कि अलंकार शब्दादि के अस्थिर धर्म होते हैं तथा उसके द्वारा रस के उपकारक होते हैं : शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माश्शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलंकारास्तेऽगदादिवत् ॥(साहित्यदर्पण १०-१) इस प्रकार स्पष्ट है :(१) अलंकार रस के धर्म न होकर शब्दार्थ के धर्म है, जब कि गुण रस के धर्म हैं । (२) अलंकार शब्दार्थ के भी अनित्य या अस्थिर धर्म हैं, उनका शब्दार्थ में होना अनिवार्य नहीं, जबकि गुण रस के स्थिर धर्म है। (३) अलंकार काव्य की शोभा के विधायक नहीं, वे तो केवल शोभा की वृद्धि भर करते हैं, शोभा की सृष्टि तो रस करता है । (४) अलंकार शब्दार्थ की शोभा बढ़ा कर उसके द्वारा रस के उपस्कारक बनते हैं। (५) ये ठीक वैसे ही रस के उपस्कारक होते हैं, जैसे अंगदादि आभूषण शरीर की शोभा बढ़ा कर शरीरी के उपस्कारक बनते हैं। अलंकारों का वर्गीकरण हम देखते हैं कि अलंकार शब्दार्थ के अनित्य धर्म हैं, अतः शब्द एवं अर्थ दोनों के पृथक-पृथक अलंकार होंगे। कुछ अलंकार शब्द से संबद्ध होते हैं, कुछ अर्थ से, कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो शब्द तथा अर्थ दोनों से संबद्ध होते हैं। इस तरह अलंकार तीन तरह के होंगे-शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उमयालंकार । अलंकारों के विषय में मम्मटाचार्य का एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि जो अलंकार जिस पर आश्रित हो, वह उसका अलंकार कहलाता है-'योयदाश्रितःस तदलंकारः'। . भाव यह है, जो चमत्कार शब्द या अर्थ पर आश्रित हो वह शब्दालंकार या अर्थालंकार है तथा जो चमत्कार शम्दार्थ पर आश्रित हो वह उभयालंकार है। शब्दालंकार का वास्तविक चमत्कार शब्द पर आश्रित होने के कारण, उस शब्द को हटा कर उसके पर्यायवाची शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने से चमत्कार नष्ट हो जायगा। इसीलिये शब्दालंकार सदा 'शब्दपरिवृत्ति' नहीं सह पाता, वह 'शब्दपरिवृत्त्यसहिष्णु' होता है। अर्थालंकार में यह बात नहीं है, वहाँ वास्तविक चमत्कार शब्द में न होने के कारण किसी भी शब्द को हटाकर पर्यायवाची शब्दका प्रयोग करने पर भी चमत्कार बना रहता है। यही कारण है, अर्थालंकार 'शब्दपरिवृत्तिसहिष्णु' होता है। हम दो उदाहरण ले लें (१)कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय । उहि खाये बौराय है, उहि पाये ही बौराय ॥ इस पब में 'यमक' नामक शब्दालंकार हैं। 'कनक' इस शब्द का दो बार भिन्न-भिन्न अर्थ में प्रयोग किया गया है, एक स्थान पर इसका अर्थ है 'सुवर्ण' दूसरे स्थान पर 'आक' । यहाँ . चमत्कार इस प्रकार एक से ही पद के दो बार दो अर्थों में प्रयोग करने के कारण है । यदि एक भी अर्थ में हम शब्दपरिवृत्ति कर देंगे तो अलंकार नष्ट हो जायगा। 'कनक आकतै सौगुनी' पाठ करने पर पथ का चमत्कार नष्ट हो जायगा तथा यहाँ कोई अलंकार न रहेगा।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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