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________________ [ ३८ 1 दीक्षित ने सर्वप्रथम प्राचीनों के तीन लक्षणों की आलोचना की है। उपमा का प्रथम लक्षण यह है :-जहाँ उपमेयत्व तथा उपमानत्व के योग्य (तत्तत् उपमानोपमेय बनने की क्षमतावाले) दो पदार्थों का सुन्दर सादृश्य वर्णित हो, वहाँ उपमा होती है।' उपमानोपमेयत्वयोग्ययोरर्थयोईयोः। हचं साधर्म्यमुपमेत्युच्यते काव्यवेदिभिः । इस लक्षण में तीन बातें हैं:(१) दो मिन्न पदार्थों में साधयं वर्णित किया जाय, (२) ये पदार्थ क्रमशः उपमान तथा उपमेय होने के योग्य हों, (३) इनका साधर्म्य सुंदर (हृद्य ) हो । अप्पय दीक्षित ने इस लक्षण में निम्न दोष माने हैं: (१) आप लोगों ने 'अर्थयोः' के साथ 'द्वयोः' विशेषण क्यों दिया है ? संभवतः आप इससे अनन्वय का निरास करना चाहते हैं, क्योंकि अनन्वय में उपमान तथा उपमेय दोनों पदार्थ एक ही वस्तु होती है। पर इतना करने पर भी आपका लक्षण दुष्ट ही है, क्योंकि इसमें उपमेयोपमा तथा प्रतीप का निरास नहीं हो पाता । (२) आपने 'उपमानोपमेयस्वयोग्ययो' के द्वारा इस बात का संकेत किया है कि जहाँ दो पदार्थों में साधये संभव हो, उसी वर्णन में उपमा होगी। इस तरह तो आपका लक्षण कल्पितोपगा को उपमा से बाहर कर देता है। वस्तुत: लक्षण ऐसा बनाना चाहिये जिसमें कल्पितोपमा भी समाविष्ट हो सके। (३) इस लक्षण में साधर्म्य के 'निर्दुष्ट' (लिंगवचनादिदोषरहित ) होने का कोई संकेत नहीं, अतः लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है, ऐसा लक्षण मानने पर तो सदोष साधर्म्यवर्णन में'हंसीव धवलबन्द्रः सरांसीवामनमः' इत्यादि पद्य में भी उपमा होगी, क्योंकि यहाँ 'हंसी तथा 'चन्द्र' 'सरोवर' तथा 'आकाश' में उपमानोपमेययोग्यत्व है, साथ ही वर्णन में सुन्दरता भी है ही, पर यहाँ प्रथम में लिंगदोष है, (हंसी स्त्रीलिंग है, चन्द्रमा पुंलिंग ) तथा द्वितीय में बचनदोष है ('सरांसि' बहुवचन है, 'नम:' एकवचन)। दीक्षित की इस दलील का उत्तर तो मजे में दिया जा सकता है कि 'हां' विशेषण 'निर्दुष्ट' की व्यंजना करा देता है, क्योंकि वर्णन की सुन्दरता तमी मानी जा सकेगी, जब वह 'निर्दोष' हो। (४) इस लक्षण में चौथा दाष यह बताया गया है कि इसमें उपमाध्वनि का भी अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि उपमाध्वनि अलंकार न होकर अलंकार्य है।' दीक्षित ने दूसरा लक्षण प्रतापरुद्रीयकार विद्यानाथ का दिया है। विद्यानाथ के मत से, 'नहाँ स्वतःसिद्ध, स्वयं से भिन्न, संमत ( योग्य ) जन्य ( अवयं, उपमान ) के साथ किसी धर्म के कारण एक ही बार वाच्यरूप में साम्य का प्रतिपादन किया जाय, वहाँ उपमा होती है।' स्वतः सिवन मिनेन संमतेन च धर्मतः । साम्यमन्येन वय॑स्य वाच्यं घेदेकदोपमा ॥ ( प्रतापरुद्रीय ) १.चित्रमीमांसा पृ०-८।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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