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________________ २६८ कुवलयानन्दः एकस्मिन्वाचकेऽनुप्रवेशो वाच्ययोरेवालंकारयोः स्वारसिको वाच्यप्रतियोगिकत्वाद्वाचकस्येति मत्वार्थालंकारयोरप्ये कवाचकानुप्रवेशसंकर मुदाजहार सत्पुष्करद्योतितरङ्गशोभिन्यमन्दमारब्धमृदङ्गवाद्ये | 'उद्यानवापीपयसीव यस्या मेणीदृशो नाट्यगृहे रमन्ते ॥ एकवाचकानुप्रवेश संकर अर्थालङ्करों का भी माना है। उनके मतानुसार एकवाचकानुप्रवेश अर्थालङ्कारों का ही शोभाधायक हो पाता है, क्योंकि वाचक (पद) तो वाच्य ( अर्थ ) का प्रतियोगी अर्थात् संबंधी होता है । भाव यह है कि जब आचार्य एकवाचकानुप्रवेश संकर मानते हैं तो 'वाचक' पद के द्वारा वे वाच्य ( अर्थ ) का संकेत करते जान पड़ते हैं, क्योंकि वाचक तो वाक्य से सदा संबद्ध रहता है । रुय्यक ने यही मानकर अर्थालङ्कारों का भी एकवाचकानुप्रवेश संकर माना है तथा उसका उदाहरण निम्न है। टिप्पणी- संसृष्टि वाला रूपक तथा अनुप्रास का उदाहरण अलंकार चंद्रिकाकार वैद्यनाथ ने यह दिया है : सो रथ एत्थ नामे जो एयं महमहन्तलाअण्णं । तरुणाण हिअअलुडिं परिसप्पतिं णिवारेइ ॥ -: ( इस गाँव में ऐसा कोई नहीं, जो जगमगाते सौंदर्यवाली, युवकों के हृदयलुण्ठनरूप इस नायिका को घूमने से रोक सके ) । यहाँ 'स्थि - एत्थ' में अनुप्रास है, 'तरुणाण हिअअलुडिं' में रूपक' यहाँ ये दोनों एक पदगत नहीं हैं, अतः संसृष्टि है । रुय्यक ने एकवाचकानुप्रवेशसंकर के प्रकरण में इसके तीन भेद मानते है : - (१) अर्थालंकारों का एक वाचकानुप्रवेश, ( २ ) शब्दार्थालंकार का एकवाचकानुप्रवेश तया ( ३ ) शब्दालंकारों का एकवाचकानुप्रवेश । तृतीयस्तु प्रकार एकवाचकानुप्रवेशसंकरः । यत्र कस्मिन्वाचकेऽनेकालंकारानुप्रवेशः, न श्च सन्देहः । यथा मुरारिनिर्गता नूनं नरकप्रतिपन्थिनी । तवापि मूर्ध्नि गंगेव चक्रधारा पतिष्यति ॥ अत्र मुरारिनिर्गतेति साधारणविशेषण हेतुका उपमा, नरकप्रतिपन्थिनीति श्लिष्टविशेषण समुत्थश्चोपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेषश्चैकस्मिन्नेवशब्देऽनुप्रविष्टौ तस्योभयोपकारिवात् । अत्र यथार्थश्लेषेण सहोपमायाः संकरस्तथा शब्दश्लेषेणादि सह दृश्यते । यथा'सत्पुष्करद्योतितरंगशोभिन्य मंदमारब्धमृदंगवाद्ये । उद्यानवापीपयसीव यस्यामेणीदृशो नाट्यगृहे रमन्ते ॥' अत्र 'पयसीव नाट्यगृहे रमन्ते' इत्येतावतैव समुचितोपमा निष्पन्ना सत्पुरुषद्योतितरंग इति शब्दश्लेषेण सहैकस्मिन्नेव शब्दे संकीर्णा । शब्दालङ्कारयोः पुनरेकवाचकानुप्रवेशेन संकरः पूर्वमुदाहृतो राजति तटीयम्' इत्यादिना । एकवाचकानुप्रवेशेनैव चात्र संकीर्णत्वम् । ( अलंकार सर्वस्व पृ. २५५ ) जिस नगरी में हिरनियों के समान नेत्रवाली सुन्दरियाँ सुन्दर मृदंग से सशब्द रंगभूमि से सुशोभित तथा धीर एवं गंभीर मृदंग तथा वाद्ययन्त्रों की ध्वनिवाले नाट्यगृह में इसी तरह रमण करती थीं, जैसे सुन्दर कमलों से सुशोभित तरंग वाली उद्यानवापियों ( बगीचे की बावलियों ) के पानी में जलक्रीडा करती थीं।'
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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