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________________ ૨૨ कुवलयानन्दः चात्र विवक्षित एव । भेदाभेदोभयप्रधानोपमेत्यालंकारिकसिद्धान्तात् । तत्र च प्रयाजकाण्डनिष्कर्षन्यायेनाभेदगर्भतांशोपजीवनेन साधारण्यं सम्पाद्य प्रधानभूतोत्प्रेक्षासमासोक्त्यङ्गता निर्वाह्या । न हि प्रकाशशीतापनयनशक्तिमतः सौरतेजसः शीतापनयनशक्तिमात्रेण शीतालूपयोगिता न दृष्टा ।। एवमनभ्युपगमे च, ____ 'पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लुप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन | दोनों में सादृश्य को स्थापित करने वाला एक साधारण धर्म पाया जाता है और इस साधारणधर्म की प्रतीति कराना कवि का स्वयं का अभीष्ट है ही। इसलिए यहाँ भेदाभेदोभयप्रधानोपमा मानी जायगी, ऐसा आलंकारिकों का मत है। टिप्पणी-साधर्म्य के तीन रूप माने जाते हैं:-भेदप्रधान, अभेदप्रधान, भेदाभेदप्रधान । वैद्यनाथ ने बताया है कि उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा तथा स्मरण नामक अलंकारों में साधारण धर्म भेदाभेदप्रधान होता है: 'साधय त्रिविधं भेदप्रधानमभेदप्रधानं भेदाभेदप्रधानं च । उपमानन्वयोपमेयोपमास्मरणानां भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यमूलत्त्वम् ॥' - इस प्रकार यहाँ प्रयाजकाण्डनिष्कर्षन्यास से केवल अभेदमूलक अंग को ही लेकर प्रकृत तथा अप्रकृत पक्ष में साधारण्य सम्पादित किया जा सकता है, ऐसा करने पर ये दोनों उपमाएँ काव्य में प्रधानभूत (अंगी) उत्प्रेक्षा तथा समासोक्ति अलंकारों के अंग बन जाती हैं। कोई यह शंका करे कि जब भेदाभेदप्रधान साधर्म्य वाली उपमा में दो अंश हैं तो आप केवल अभेद वाले अंश को ही लेते हैं यह ठीक नहीं, इसका उत्तर देते हुए सिद्धान्तपक्षी एक युक्ति का प्रयोग करता है । हम देखते हैं कि सूर्य के तेज में दो गुण हैं, प्रकाश तथा ठंड मिटाने की क्षमता, यहाँ ठण्ड से ठिठुरते हुए व्यक्ति के लिए सूर्य के तेज का प्रकाश वाला गुण गौण है, खास गुण ठण्ड मिटाने की शक्ति ही है, इसी तरह उत्प्रेक्षादि के लिए इस उपमादय के साधारणधर्म के अभेदांश की ही उपयोगिता सिद्ध होती है। टिप्पणी-प्रयाजकाण्डनिष्कर्षन्यायः-दर्शपूर्णमास में तीन प्रकार के याग होते है-पुरोडाश, आज्य तथा सान्नाय । सान्नाय 'दविपय' को कहते हैं। इसके सम्पादन के लिए जितने धर्म । उनका निरूपण करने के लिए प्रवृत्त ब्राह्मणभाग को तत्तत् काण्ड के नाम से पुकारते हैं। जैसे-पौरोडाशिकं काण्डम् , आज्यकाण्डम्, सानाय्यकाण्डम् इत्यादि । प्रकृत में पौरोडाशिक काण्ड में ५ प्रयाज विहेत है-समित्प्रयाज, तनूनपात्प्रयाज, इटप्रयाज, बर्हिष प्रयाज, स्वाहाकारप्रयाज । इन पाँचों की पौरोडाशिककाण्ड से निकाल कर सारे दर्शणमास का प्रकरण प्रमाण से अग माना गया है। अन्यथा समाख्या में पाँचों प्रयाज केवल पुरोडाश यागों के ही अंग होंगे। अतः जैसे प्रयाजकाण्ड पौरोडाशिक काण्ड से निकाल कर अभेदांश के कारण दर्शपूर्णमास लगाया जाता है, वैसे ही यहाँ भी अभेदांश का ही प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों में साधारण्यसम्पादकत्व टीक बैठ जायगा। सिद्धांत पक्षी पूर्वपक्षी को अपनी बात पर राजी करने के लिए एक दलील रखता है कि हमारा मत न माना जायगा-अर्थात् भेदाभेदप्रधान उपमा में केवल अभेदांश की उपयो. गिता न मानी जायगी-तो कई कायों में उपमा अलंकार का निर्वाह नहीं हो सकेगा। उदाहरण के लिए हम निम्न काव्य ले लें:-(रघुवंश के षष्ट सर्ग में इन्दुमती स्वयंवर के समय का पाण्ड्यराज का वर्णन है।) 'कन्धे पर लटकते हार वाला, हरिचन्दन के अङ्गराग से विभूषित यह पाण्ड्यदेश का
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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