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________________ विकस्वरालङ्कारः २०६ एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः ।। इदमुपमानरीत्या विशेषान्तरस्य न्यसने उदाहरणम् । अर्थान्तरन्यासविधया यथाकर्णारुन्तुदमन्तरेण रणितं गाहस्व काक ! स्वयं माकन्दं मकरन्दशालिनमिह त्वां मन्महे कोकिलम् । धन्यानि स्थलवैभवेन कतिचिद्वस्तूनि कस्तूरिकां नेपालक्षितिपालभालपतिते पके ने शङ्केत कः ?॥ यथा वामालिन्यमब्जशशिनोर्मधुलिट्कलको __ धत्तो मुखे तु तव दृक्तिलकाअनाभाम् । दोषावितः कचन मेलनतो गुणत्वं । वक्तगुणौ हि वचसि भ्रमविप्रलम्भौ ॥ १२४ ॥ उत्पत्तिभूमि होने के कारण, उसमें बर्फ का होना भी उसके सौभाग्य का हास न कर पाया । अनेकों गुणों के होने पर एक दोष उनके समूह में वसे ही छिप जाता है, जैसे चन्द्रमा की किरणों में कलङ्क । यहाँ 'बर्फ अनेकों रत्नों की खान हिमालय का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया' यह विशेष उक्ति है। इसका समर्थन 'अनेकों गुणों के समूह में एक दोष छिप जाता है' इस सामान्य उक्ति के द्वारा किया गया है। इसका समर्थन पुनः उपमानवाक्य 'जैसे चन्द्रमा की किरणों में कलङ्क" इस विशेष उक्ति के द्वारा किया जा रहा है। अतः यहाँ विकस्वर अलङ्कार है। ___ यह उदाहरण अन्यविशेष के उपमान प्रणाली के किये गये प्रयोग का है। अर्थान्तर. न्यास वाली प्रणाली के निम्न दो उदाहरण हैं: कोई कवि कौए को सम्बोधित करके कह रहा है। हे कौए, कानों के कर्कश लगने वाले स्वर को छोड़कर तुम पराग से सुरभित आम के पेड़ का सेवन करो, लोग तुम्हें वहाँ कोयल समझने लगेंगे। किसी विशेष स्थान की महिमा के कारण कई वस्तुएँ धन्य हो जाती हैं। नेपाल के राजा के ललाट पर लगे हुए कीचड़ (पङ्क) को कौन व्यक्ति कस्तूरिका न समझेगा ? यहाँ 'कौए का आम के पेड़ पर जाकर कोयल समझा जाना' यह विशेष उक्ति है। इसका समर्थन 'स्थानमहिमा से वस्तुएँ भी महिमाशाली हो जाती हैं। इस सामान्य के द्वारा हुआ है। इसमें अर्थान्तरन्यास है । सामान्य का पुनः अर्थान्तरन्यासविधि से 'नेपालराज के भाल पर पङ्क भी कस्तूरिका समझा जाता है' इस विशेष के द्वारा समर्थन किया गया है । अतः यहाँ विकस्वर अलङ्कार है । अथवा जैसे हे सुन्दरी, कमल तथा चन्द्रमा में भौंरा तथा कलङ्क मलिनता को धारण करते हैं, और तुम्हारे मुख में नेत्र तथा तिलकाअन उनकी शोभा को धारण करते हैं। कभी-कभी दो दोष मिलकर गुण भी बन जाते हैं। वक्ता की वाक्शक्ति में भ्रम तथा विप्रलम्भ कभी कभी गुण माने जाते हैं। (भाव यह है वक्ता कभी-कभी पूर्वपक्षी को परास्त करने के लिये भ्रम तथा विप्रलम्भ का प्रयोग करता है, जैसे कोई नैयायिक छल से घटवत् स्थान १४ कुव०
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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