SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ कुवलयानन्दः ww हनुमानब्धिमतरद् दुष्करं किं महात्मनाम् ॥ १२२ ॥ गुणवद्वस्तुसंसर्गाद्याति स्वल्पोऽपि गौरवम् । पुष्पमालानुषङ्गेण सूत्रं शिरसि धार्यते ॥ १२३ ॥ सामान्यविशेषयोर्द्वयोरप्युक्तिरर्थान्तरन्यासस्तयोश्चैकं प्रस्तुतम्, अन्यदप्रस्तुतं भवति । ततश्च विशेषे प्रस्तुते तेन सहाप्रस्तुतसामान्यरूपस्य सामान्ये प्रस्तुते तेन सहा प्रस्तुत विशेषरूपस्य वाऽर्थान्तरस्य न्यसनमर्थान्तरन्यास इत्युक्तं भवति । तत्राद्यस्य द्वितीयार्धमुदाहरणं द्वितीयस्य द्वितीयश्लोकः । नन्वयं काव्यलिङ्गान्नातिरिच्यते । तथा हि- उदाहरणद्वयेऽप्यप्रस्तुतयोः सामान्यविशेषयोरुक्तिः प्रस्तुतयोर्विशेषसामान्ययोः कथमुपकरोतीति विवेक्तव्यम् । न हि सर्वथैव प्रस्तुता का, अथवा सामान्य रूप मुख्यार्थ के लिए विशेष रूप अन्य वाक्यार्थ का प्रयोग किया जाय, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । प्रथम कोटि के अर्थान्तरन्यास का उदाहरण है : - हनूमान् समुद्र को लाँघ गये; बड़े लोगों के लिए कौन सा कार्य दुष्कर है। दूसरी कोटि का उदाहरण है :- गुणवान् वस्तु के संसर्ग से मामूली वस्तु भी गौरव को प्राप्त करती है; पुष्पमाला के संसर्ग से धागा सिर पर धारण किया जाता है। यहाँ प्रथम उदाहरण में ' हनूमान् समुद्र को लाँघ गये' यह विशेष रूप मुख्यार्थं प्रस्तुत है, इसका समर्थन 'महात्माओं के लिए कौन कार्य कठिन है' इस सामान्यरूप अप्रस्तुत से किया गया है। दूसरे उदाहरण में 'गुणवान् गौरव को प्राप्त करती है' सामान्य रूप प्रस्तुत है, इसका समर्थन 'पुष्पमाला धारण किया जाता है' इस विशेष रूप अप्रस्तुत से किया गया है । अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है । सामान्य तथा विशेष दोनों की एक साथ उक्ति अर्थान्तरन्यास कहलाती है, इनमें से एक अर्थ प्रस्तुत होता है, एक अप्रस्तुत । इस प्रकार जहाँ विशेष प्रस्तुत होता है, वहाँ उसके साथ सामान्यरूप अप्रस्तुत अन्य अर्थ का उपन्यास किया जाता है, तथा जहाँ सामान्य प्रस्तुत होता है, वहाँ विशेषरूप अप्रस्तुत अन्य अर्थ का उपन्यास किया जाता है। अतः एक अर्थ के साथ अन्य अर्थ का न्यास होने के कारण यह अलंकार अर्थान्तरन्यास कहलाता है । इसमें विशेष का सामान्य के द्वारा समर्थन प्रथम कारिका के उत्तरार्ध में पाया जाता है, तथा दूसरी कोटि (विशेष के द्वारा सामान्य का समर्थन ) के अर्थातरन्यास का उदाहरण दूसरा श्लोक है । इस संबंध में पूर्वपक्षी को यह शंका हो सकती है कि अर्थान्तरन्यास का काव्यलिंग में ही समावेश किया जाता है । अतः इसे काव्यलिंग से भिन्न अलंकार मानना ठीक नहीं। इस मत को पुष्ट करते हुए पूर्वपक्षी कुछ दलीलें देता है । अर्थान्तरन्यास के उपर्युत उदाहरणद्वय में प्रस्तुत विशेष - सामान्य का अप्रस्तुत सामान्य- विशेषरूप उक्ति से कैसे समर्थन होता है, इसका विवेचन करना आवश्यक होगा। काव्य में प्रस्तुत से असंबद्ध ( अनन्वय) अप्रस्तुत का प्रयोग सर्वथा अनुचित होता है, अतः यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त पद्यों में अप्रस्तुत प्रस्तुत से संबद्ध होना चाहिए । प्रस्तुत के साथ अप्रस्तुत का यह सम्बन्ध किस प्रकार का है, इसे देखना जरूरी होगा। इन उदाहरणों में अप्रस्तुत को प्रस्तुत का व्यंजक नहीं माना जा सकता, जैसा कि अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार में देखा जाता है । वहाँ अप्रस्तुत का वाच्यरूप में प्रयोग कर उसके द्वारा प्रस्तुत की व्यंजना कराई जाती है, ऐसे स्थलों में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy