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________________ [ २८ ] कर पास में केतकी पर बैठे भरे से कहा - 'मौरे, इस कांटों से भरी केतकी से क्या, जब कि मालती मौजूद है'। तो यहाँ भ्रमर वृत्तान्त ( वाच्य ) तथा कामुकवृत्तान्त ( व्यंग्य ) दोनों प्रस्तुत हैं, अतः यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा से भिन्न चमत्कार होने से अन्य हो अलंकार मानना होगा । प्रस्तुतेन प्रस्तुतस्य द्योतने प्रस्तुतांकुरः । किं भृङ्ग, सत्यां मालत्यां केतक्या कण्टकेया ॥ (का० ६७ ) रुचिर उदाहरणों के रूप में हम हिन्दी कृष्णभक्त कवियों के 'भ्रमर' सकते हैं, जहाँ उड़कर आये हुए प्रस्तुत 'भौरे के बहाने गोपियों ने भर्त्सना की है। प्रस्तुतांकुर अलंकार के गीत' के पर्दों का संकेत कर प्रस्तुत व्यंग्य रूप में उद्धव की प्रश्न होता है, क्या इसे अप्रस्तुतप्रशंसा से भिन्न माना जा सकता है ? अन्य आलंकारिकों ने इसे अप्रस्तुतप्रशंसा में ही अन्तर्भावित माना है। उनका मत है कि जहाँ दो प्रस्तुत माने जाते हैं, वहाँ भी कवि की प्रधानविवक्षा एक ही पक्ष में होती है, दोनों में नहीं, अतः प्रधानगीण भाव से एक प्रस्तुत हो ही जाता है। उदाहरण के लिए ऊपर के पद्य में कामुक वृत्तांत में ही कवि तथा वक्री नायिका की प्रधानविवक्षा है, अतः वही प्रस्तुत है, भृङ्ग वृत्तांत गौण होने के कारण अप्रस्तुत ही सिद्ध होता है। इस तरह यहाँ वाच्य ( अप्रस्तुत ) भृङ्ग वृत्तांत से व्यंग्य ( प्रस्तुत ) कामुक वृत्तांत की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण घटित हो ही जाता है । फिर प्रस्तुतांकुर जैसे नये अलंकार की कल्पना करने की आवश्यकता क्या है ? पंडितराज जगन्नाथ ने रसगङ्गाधर के अप्रस्तुतप्रशंसा प्रकरण में प्रस्तुतांकुर को अलग से अलंकार मानने का खंडन किया है। 'एतेन' द्वयोः प्रस्तुतखे प्रस्तुतांकुरनामान्योऽलंकारः इति कुवलयानन्दायुक्तमुपेक्षणीयम् । किंचिद्वैलक्षण्यमात्रेणैवालंकारान्तरता कल्पने वाग्भंगीनामानन्त्यादलंकारानन्त्यप्रसंग त्यसकृदावेदितत्वात् । ( रसगंगाधर पृ० ५४५ ) नागेश ने भी काव्यप्रदीप की टीका उद्योत में कुवलयानन्दकार का खण्डन किया है । वे बताते हैं कि या तो यहाँ कुल लोगों के मत से समासोक्ति अलंकार माना जा सकता है, क्योंकि भ्रमरवृत्तांत प्रस्तुत है तथा नायकनायिकावृत्तांत उसकी अपेक्षा गुणीभूतव्यंग्य हो गया है, या यहाँ नायकनायिका वृत्तांत में कवि की प्रधान विवक्षा मानने पर तथा उसे व्यंग्य मानने पर भ्रमरविषयक वृत्तांत गौण तथा अप्रस्तुत हो जाता है, इस तरह यहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा होगी । नागेश को द्वितीय विकल्प ( अप्रस्तुतप्रशंसा ) ही स्वीकार है । 'अत्रेदं बोध्यम् - अप्रस्तुतपदेन मुख्यतात्पर्यविषयीभूतार्थातिरिक्तोऽर्थो ग्राह्यः । एतेनकिं भृङ्ग सत्यां मालव्यां केतक्या कंटकेद्धया' इत्यत्र प्रियतमेन साकमुद्याने विहरती काचिद् मृगं प्रत्येवमाहेति प्रस्तुतेन प्रस्तुतांतरद्योतने प्रस्तुतांकुरनामा भिन्नोऽलंकार इत्यपास्तम् । 'मदुक्तरीत्यास्या एव संभवात् । यदा मुख्यतात्पर्यविषयः प्रस्तुतश्च नायिकानायकवृत्तान्ततदुत्कर्षतया गुणीभूतव्यंग्यस्तदाऽत्र सादृश्यमूला समासोक्तिरेवेति केचित् । अन्येवप्रस्तुतेन प्रशंसेत्य प्रस्तुतप्रशंसाशाब्दार्थः । एवं च वाच्येन व्यंग्येन वाऽप्रस्तुतेन वाच्यं भ्यक्तं वा प्रस्तुतं यत्र सादृशाद्यन्यतमप्रकारेण प्रशस्थत उत्कृष्यत इत्यर्थादपीयमेवेत्याहुरिति दिकू ॥ ( उद्योत पृ० ४९० ) २. अल्प :- दीक्षित के द्वारा निर्दिष्ट 'अल्प' अलंकार मम्मटादि के द्वारा वर्णित 'अधिक' अलं'कार का विरोधी है। अधिक अलंकार वहाँ माना जाता है, जहाँ अत्यधिक विशाल आधार होने
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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