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________________ समुच्चयालङ्कारः अद्य कान्तः कृतान्तो वा दुःखस्यान्तं करिष्यति ।। प्रियसमागश्मश्चेन्न मरणमाशंसनीयं, मरणे तु न प्रियसमागमसंभव इति तयोराशंसायां विकल्पः ।। ११४ ।। ५५ समुच्चयालङ्कारः बहूनां युगपद्भावभाजां गुम्फः समुच्चयः । नश्यन्ति पश्चात्पश्यन्ति त्रस्यन्ति च भवद्विषः ॥ ११५ ॥ अविरोधेन संभावित यौगपद्यानां नाशादीनां गुम्फनं समुच्चयः । यथा वा बिभ्राणा हृदये त्वया विनिहितं प्रेमाभिधानं नवं १८७ शल्यं यद्विदधाति सा विधुरिता साधो ! तदाकर्ण्यताम् । नाच रहे हैं । ऐसी स्थिति में प्रिय का वियोग मुझे अत्यधिक दुःख दे रहा है । इस दुःख का अन्त या तो प्रिय ही ( आकर ) कर सकेगा, या स्वयं यमराज ही ( मुझे मारकर )। यहाँ प्रियसमागम तथा मरण इन दो विरोधी तुल्यबल पदार्थों का विकल्प है। यदि प्रियसमागम होगा तो मरण नहीं होगा, यदि मरण होगा तो प्रियसमागम संभव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों की युगपत् स्थिति के कारण यहाँ विकल्प अलङ्कार है । ( विकल्प अलङ्कार वच्यमाण समुच्चय अलङ्कार का ठीक उसी तरह उलटा होता है, जैसे व्यतिरेक अलङ्कार उपमा का उलटा होता है :- अयं च समुच्चयस्य प्रतिपक्षभूतो व्यतिरेक इवोपमायाः (रसगंगाधर पृ० ६५७ ) ) ५५ समुच्चय अलङ्कार ११५ - जहाँ एक ही वस्तु से संबद्ध अनेकों पदार्थों का एक साथ गुंफन किया गया हो, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है । ( यह समुच्चय अनेक गुण, अनेक क्रिया आदि का पाया जाता है ।) जैसे हे राजन् आपके शत्रु पहले राज्यच्युत होते हैं, पीछे देखते हैं तथा आपसे डरते हैं । टिप्पणी -- मम्मट ने समुच्चय अलंकार वहाँ माना है, जहाँ किसी कार्य के एक साधक ( हेतु ) के होने पर अन्य साधक भी उपस्थित हो । तत्सिद्धि हेत । वेकस्मिन् यत्रान्यत्तत्करं भवेत् । समु• योऽसौ ( काव्यप्रकाश १० - ११६ ) । यही परिभाषा विश्वनाथ की है, जिसने लक्षण में 'खलेकपोतिकान्याय' का संकेत कर इसे और स्पष्ट कर दिया है । समुच्चयोऽयमेकस्मिन्सति कार्यस्य साधके । खलेकपोतिकान्यायात्तत्करः स्यात्परोऽपि चेत् ॥ ( साहित्यदर्पण ) यहाँ शत्रु राजाओं के सम्बन्ध में एक साथ राज्य से च्युत होने, पीछे देखने तथा डरने इन अनेक क्रियाओं का एक साथ वर्णन किया गया है, अतः समुच्चय अलङ्कार है । अथवा जैसे— कोई दूती किसी नायक से विरहिणी नायिका की दशा कह रही है। हे सज्जन युवक, तूने जिस प्रेम नाम वाले नये बाण ( शल्य ) को उस नायिका के हृदय में छोड़ा, उस बाण को धारण करती हुई वह विरहिणी नायिका जो कुछ कर रही है उसे सुन 1
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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