SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुवलयानन्दः ५२ परिवृत्त्यलङ्कारः परिवृत्तिर्विनिमयो न्यूनाम्यधिकयोमिथः । जग्राहैकं शरं मुक्त्वा कटाक्षात्स रिपुश्रियम् ॥ ११२ ॥ यथा वातस्य च प्रवयसो जटायुषः स्वर्गिणः किमिव शोच्यतेऽधुना ? | येन जर्जरकलेवरव्ययात् क्रीतमिन्दुकिरणोज्ज्वलं यशः ॥ ११२ ।। ५३ परिसंख्यालङ्कारः परिसंख्या निषिध्यैकमेकस्मिन् वस्तुयंत्रणम् । स्नेहक्षयः प्रदीपेषु न स्वान्तेषु नतभ्रुवाम् ॥ ११३ ॥ ___५२. परिवृत्ति अलंकार ११२-सम, न्यून या अधिक पदार्थ जहाँ परस्पर एक दूसरे का विनिमय करे, वहाँ परिवृत्ति अलंकार होता है । जैसे, उस राजा ने कटाक्ष के साथ एक ही बाण छोड़ कर शत्रु की राज्यलक्ष्मी को ग्रहण कर लिया। __ यहाँ राजा ने एक बाण के बदले शत्रु राजा की लक्ष्मी को ग्रहण किया है, अतः बाण एव रिपुश्री का विनिमय होने से परिवृत्ति अलंकार हुआ। टिप्पणी-रसगंगाधर में पण्डितराज ने परिवृत्ति अलंकार के दो भेद माने हैं:-'समपरिवृत्ति तथा विषमपरिवृत्ति' इनके पुनः दो-दो भेद होते हैं :-समपरिवृत्ति में उत्तम का उत्तम के साथ विनिमय तथा न्यून का न्यून के साथ विनिमय । इसी प्रकार विषमपरिवृत्ति में, उत्तम का न्यून के साथ विनिमय तथा न्यून का उत्तम के साथ विनिमय । (सा च तावद्विविधा-समपरि. वृत्तिर्विषमपरिवृत्तिश्चेति । समपरिवृत्तिरपि द्विविधा उत्तमैरुत्तमानां न्यूनैन्यूनानां चेति । विषमपरिवृत्तिरपि तथा-उत्तमैन्यूनानां, न्यूनरुत्तमानां चेति । ( रसगंगाधर पृ० ६४८ ) अथवा जैसेजिस जटायु ने अपने जर्जर शरीर को देकर चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल यश को खरीदा, उस वृद्ध जटायु के मरने पर आप शोक क्यों कर रहे हैं ? (परिवृत्ति का अर्थ खरीदना होता है, इसीलिए पण्डितराज ने परिवृत्ति का अर्थ करते समय रसगंगाधर में कहा है-'क्रय इति यावत् ।') ५३. परिसंख्या अलंकार ११३-किसी पदार्थ का एक स्थान पर अभाव बताकर (उसकी स्थिति का निषेध कर ) अन्य स्थान पर उस पदार्थ की सत्ता बताना परिसंख्या अलंकार होता है। जैसेरमणियों के हृदय में स्नेह (प्रेम) का क्षय नहीं हुआ था, किंतु दीपकों में स्नेह (तैल) का क्षय हो गया था। ___ यहाँ श्लेष से स्नेह के अनुराग तथा तैल दोनों अर्थ होते हैं। यहाँ उसका कामनियों में अभाव निषिद्ध कर उसकी सत्ता दीपक में बताई गई है, अतः परिसंख्या है। (परि. संख्या शब्दकी व्युत्पत्ति करते समय परि शब्द का अर्थ त्याग तथा संख्या का अर्थ बुद्धि लेना होगा। इस प्रकार पूरे पद का अर्थ 'त्याग पूर्ण बुद्धि' होगा।)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy