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________________ १७८ कुवलयानन्दः ४९ सारालङ्कारः उत्तरोत्तरमुत्कपः सार इत्यभिधीयते । मधु मधुरं तस्माच्च सुधा तस्याः कवेर्वचः ॥ १०८ ॥ यथा वा अन्तर्विष्णो त्रिलोकी निवसति फणिनामीश्वरे सोऽपि शेते, सिन्धोः सोऽप्येकदेशे, तमपि चुलुकयां कुम्भयोनिश्चकार । धत्ते खद्योतलोलामयमपि नभसि, श्रीनृसिंहक्षितीन्द्र ! त्वत्कीर्तेः कर्णनीलोत्पलमिदमपि च प्रेक्षणीयं विभाति ॥ पूर्व पूर्व पदार्थ के द्वारा उत्तरोत्तर पदार्थ विशिष्ट होता है, इस अलंकार का समावेश करते हैं । ( अस्मि एकावल्या द्वितीये भेदे पूर्वपूर्वैः परस्य परस्योपकारः क्रियमाणो यद्येकरूपः स्यात्तदायमेव मालादीपक शब्देन व्यवहियते प्राचीनैः । पृ० ६२५ ) इसी संबंध में वे अपय दीक्षित का भी खंडन करते हैं, जो मालादीपक में दीपक तथा एकावली का योग मानते हैं, क्योंकि ऐसे स्थलों में प्रकृत अप्रकृत का योग नहीं पाया जाता जो दीपक अलंकार में होना आवश्यक है: - 'इह च श्रृंखलावयवानां पदार्थानां सादृश्यमेव नास्ति इति कथंकारं दीपकतावाचं श्रद्दधीमहि । तेषां प्रकृताप्रकृतात्मकत्वविरहाच्च । एतेन दीपकैकावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते' इति यदुक्तं कुवलयानन्दकृता तद्भ्रान्तिमात्र विलसितमिति सुधीभिरालोचनीयम् )' (रसगंगाधर पृ० ६२५ ) । दीपकालंकार के प्रकरण में पण्डितराज ने 'संग्रामांगणमा - गतेन भवता चापे समारोपिते' इस उदाहरण की भी आलोचना की है, जिसे स्वयं मम्मट ने मालादीपक ( दीपक के भेद विशेष ) के उदाहरण के रूप में उपन्यस्त किया है । वे इस पद्य में दीपक अलंकार ही नहीं मानते । ( एतेन 'संग्रामांगण' इति प्राचीनानां पद्यं दीपकांशेऽपि सदोषमेव । वही पृ० ४४० ) इस पद्य में दीपक न मानने के दो कारण हैं, पहले तो यहाँ पदार्थों में प्रकृताप्रकृतत्व नहीं है, न उनमें कोई सादृश्य ही है, अतः यह केवल एकावलो का ही भेद है; दूसरे यदि यहाँ सादृश्य माना भी जाय तो भी यहाँ दीपकांश में दुष्टता है, क्योंकि यहाँ शरादि से 'समासादितं' पद का विभक्तिविपरिणाम तथा लिंगविपरिणाम से अन्वय होता है, अतः जिस तरह उपमा में लिंगादि विपरिणाम के कारण दोष माना जाता है, वैसे ही यहाँ भी दोष होगा । अतः यहाँ केवल एकावली अलंकार है । ४९. सार अलङ्कार १०८ - जहाँ अनेक पदार्थों का वर्णन करते समय उत्तरोत्तर पदार्थ को पूर्व पूर्व पदार्थ से उत्कृष्ट बताया जाय, वहाँ सार अलङ्कार होता है । जैसे, शहद मीठा होता है, उससे भी मीठा है, और कवि की वाणी उससे ( अमृत से ) भी मधुर है । अमृत यहाँ शहद से अमृत की उत्कृष्टता बताई गई और उससे भी कवि के वचनों की, अतः सार अलङ्कार है । अथवा जैसे यह पद्य विद्यानाथ की एकावली से उद्धृत है । कवि राजा नृसिंहदेव की प्रशंसा कर रहा है । हे राजन् नृसिंहदेव, यह समस्त त्रैलोक्य भगवान् विष्णु के अन्तस् ( उदर ) में निवास करता है, और वे विष्णु भी शेष के ऊपर शयन करते हैं ( इस प्रकार शेष विष्णु से भी बड़े हैं ); वे शेषनाग भी समुद्र के केवल एक भाग में रहते हैं ( अतः समुद्र उनसे भी बड़ा है ), अगस्त्यमुनि उस समुद्र को भी चुल्लू में पी गये ( अतः अगस्त्यमुनि
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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