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________________ एकावल्यलङ्कारः १७५ उत्तरोत्तरकारणभूतपूर्वपूर्वैः पूर्वपूर्वकारणभूतोत्तरोत्तरर्वा वस्तुभिः कृतो गुम्फः कारणमाला। तत्राद्योदाहता । द्वितीया यथा भवन्ति नरकाः पापात् , पापं दारिद्रयसम्भवम् । दारिद्रयमप्रदानेन, तस्मादानपरो भवेत् ॥ १०४ ॥ ४७ एकावल्यलङ्कारः गृहीतमुक्तरीत्यार्थश्रेणिरेकावलिर्मता । नेत्रे कर्णान्तविश्रान्ते की दोस्तम्भदोलितौ ॥ १०५ ।। दोःस्तम्भौ जानुपर्यन्तप्रलम्बनमनोहरौ। जानुनो रत्नमुकुराकारे तस्य हि भूभुजः ॥ १०६ ॥ उत्तरोत्तरस्य पूर्वपूर्वविशेषणभावः पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरविशेषणभावो वा गृहीत. मुक्तरीतिः । तत्राद्यः प्रकार उदाहृतः । द्वितीयो यथादिक्कालात्मसमैव यस्य विभुता यस्तत्र विद्योतते यहाँ उत्तरोत्तर के कारणभूत पूर्व वस्तुओं का गुम्फ अथवा पूर्व पूर्व के कारणभूत उत्तरोत्तर वस्तुओं का गुरफ हो वहाँ कारणमाला होती है। यहाँ 'नयेन श्रीः' आदि उदाहरण में पूर्व पूर्व उत्तरोत्तर का कारण है, अतः पहले ढंग की कारणमाला है। दूसरे ढंग की कारणमाला निम्न पद्य में है, जहाँ पूर्व पूर्व कार्य का उत्तरोत्तर कारण पाया जाता है: पाप के कारण नरक मिलता है, दारिद्रय के कारण पाप होता है, दान न देने के कारण दारिद्रय होता है, इसलिए (सदा) दानी बनना चाहिए। ४७. एकावली अलंकार १०५-१०६-जहाँ अनेकों पदार्थों की श्रेणी इस तरह निबद्ध की जाय कि पूर्व पूर्व पद . का उत्तरोत्तर पद के विशेषण या विशेष्य के रूप में ग्रहण या त्याग किया जाय, वहाँ एकावली अलंकार होता है। (जिस तरह एकावली या हार में मोती माला के रूप गुंफित रहते हैं, वैसे ही यहाँ पदार्थों के विशेष्यविशेषणभाव के ग्रहण या त्याग की अवली होती है।) इसका उदाहरण यह है। उस राजा के नेत्र कर्णान्त तक लंबे हैं, उसके कान दोनों हाथ रूपी स्तम्भों के द्वारा आन्दोलित हैं, उसके दोनों हाथ रूपी स्तम्भ घुटनों तक लंबे तथा सुंदर हैं तथा उसके घुटने रत्नदर्पण के सदृश मनोहर हैं। यहाँ नेत्र से लेकर घुटनों तक परस्पर उत्तरोत्तर विशेष्यविशेषणभाव की अवली पाई जाती है। एकावली में यह विशेष्यविशेषणभाव दो तरह का होता है, या तो उत्तरोत्तर पद पूर्व पूर्व पद का विशेषण हो, या पूर्व पूर्व पद उत्तरोत्तर पद का विशेषण हो, इसी को ग्रहणरीति तथा मुक्तरीति कहते हैं। प्रथम प्रकार का उदाहरण कारिका में दिया गया है। द्वितीय का उदाहरण, जैसे - कामदेव के शत्रु महादेव की वे सब (आठों) मूर्तियाँ आप लोगों की रक्षा करें, जिस मूर्ति की दिक तथा काल के समान विभुता है (आकाश),जो उसमें (आकाश में)
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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