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________________ १७२ थथा वा कुवलयानन्दः स्फुरदद्भुतरूपमुत्प्रतापज्वलनं त्वां सृजतानवद्यविद्यम् | विधिना ससृजे नवो मनोभूर्भुवि सत्यं सविता बृहस्पतिश्च ॥ अत्राद्ये राजदर्शनारम्भेण कल्पवृक्षदर्शनरूपाशक्यवस्त्वन्तरकृतिः । द्वितीये राजसृष्टयारम्भेण मनोभ्त्रादिसृष्टिरूपाऽशक्यवस्त्वन्तरकृतिः ।। १०१ । ४५ व्याघातालङ्कारः स्याद्वयाघातोऽन्थाकारि तथाऽकारि क्रियेत चेत । यैर्जगत्प्रीयते, हन्ति तैरेव कुसुमायुधः ॥ १०२ ॥ यद् यत्साधनत्वेन लोकेऽवगतं तत् केनचित्तद्विरुद्धसाधनं क्रियेत चेत्स व्याघातः । यद्वा, — यत्, साधनतया केनचिदुपात्तं तदन्येन तत्प्रतिद्वन्द्विना द्विरुद्धसाधनं क्रियेत चेत्सोऽपि व्याघातः । तत्राद्य उदाहृतः । २. लोभाद्वराटिकानां विक्रेतुं तक्रमविरतमटन्त्या । लब्धो गोपकिशोर्या मध्येरथ्यं महेन्द्रनीलमणिः ॥ इस उदाहरण में प्रहर्षण तथा विशेष अलंकार का संकर पाया जाता है । अथवा जैसे— कोई कवि आश्रयदाता राजा की सुन्दरता, प्रताप तथा बुद्धिमत्ता की प्रशंसा कर रहा है । हे राजन्, अत्यधिक अद्भुत सौंदर्य वाले, प्रताप से जाज्वल्यमान और निष्कलुष पवित्र विद्या वाले तुम्हें बना कर ब्रह्मा ने निःसंदेह पृथ्वी पर नवीन कामदेव, सूर्य तथा बृहस्पति की ( एक साथ ) रचना की है । इन दोनों उदाहरणों में प्रथम में राजदर्शनारंभ के द्वारा कल्पवृक्षदर्शन रूप अशक्य वस्त्वंतर की कल्पना की गई है । इस दूसरे उदाहरण में राजा की रचना के आरम्भ के द्वारा नवीन कामदेव, सूर्य तथा बृहस्पति की सृष्टि वाली अशक्यवस्त्वंतरकृति पाई जाती है | अतः इन दोनों उदाहरणों में विशेष अलंकार है । ४५. व्याघात अलंकार १०२ - जहाँ किसी कार्यविशेष के साधन के रूप में प्रसिद्ध कोई पदार्थ उस कार्य विरुद्ध कार्य को उत्पन्न करे, वहाँ व्याघात अलंकार होता है । जैसे, जिन पुष्पों से संसार प्रसन्न होता है, उन्हीं पुष्पों से कामदेव संसार को मारता है । यहाँ पुष्प विरहियों के लिए संतापक होते हैं, इसका संकेत किया गया है । पुष्प वस्तुतः प्रसन्नताप्रद है, किंतु उससे ही तद्विरुद्ध क्रिया - संताप की उत्पत्ति बतायी गयी है । अतः पुष्प के विरुद्ध क्रियोत्पादक होने के कारण यहाँ व्याघात अलंकार हुआ । जहाँ कोई पदार्थ किसी विशेष कार्य के साधन रूप में संसार में प्रसिद्ध हो, तथा उसी पदार्थ से किसी उस कार्य से विरुद्ध कार्य की सिद्धि हो तो वहाँ व्याघात अलंकार होता है । अथवा, जहाँ किसी कार्य के लिये कोई साधन अभीष्ट हो, किंतु उस साधन से विरुद्ध प्रतिद्वन्द्वी अन्य साधन के द्वारा उसके विरुद्ध कार्य की सिद्धि हो जाय, वहाँ भी व्याघात होता है। इसमें प्रथम कोटि का उदाहरण 'यैर्जगत्मीयते' इत्यादि दिया गया है । दूसरे का उदाहरण निम्न है :
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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