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________________ १६४ कुवलयानन्दः अत्र 'पितुराज्ञा न लङ्घिता' इत्यनेन विरोधालंकाराभिव्यक्त्यर्थं ' न खलु' इत्यत्र पदद्वयविभागात्मकरूपान्तरस्यापि विवक्षायाः सत्त्वेऽपि नखं लुनातीति 'नखलु' इत्येकपदत्वेन वस्तुसदर्थान्तरपररूपान्तरमादाय समालंकारोऽप्यस्त्येव श्लेष लब्धाऽसदिष्टावाप्तिप्रतीतिमात्रेणापि गतमुदाहरणम् ! यथासत्यं तपः सुगत्यै यत्तत्वाम्बुषु रविप्रतीक्षं सत् । अनुभवति सुगतिमब्ज त्वत्पदजन्मनि समस्तकमनीयम् ॥ ६३ ॥ ४० विचित्रालंकारः विचित्रं तत्प्रयत्नश्रेद्विपरीतः फलेच्छया । नमन्ति सन्तत्रैलोक्यादपि लब्धुं समुन्नतिम् ॥ ९४ ॥ यथा वा ww नियितुं खलवदनं विमलयति जगन्ति देव ! कीर्तिस्ते । उसने उसीको (नखलु को, नाखून को काटने पिता की आज्ञा का उल्लंघन न किया ।' औजार को ) शस्त्र बनाया और इस प्रकार यहाँ 'पिता की आज्ञा का उल्लंघन न किया' इसके द्वारा विरोध अलंकार की प्रतीति के लिए 'नखलु 'इसके 'न खलु' इस प्रकार दो पद मानने से भिन्न रूप में कवि की विवक्षा होने पर भी नखं लुनातीति 'नखलु' ( नाखूनों को काटने का औजार) इस एक पद के द्वारा असत् अर्थ रूप वस्तु को लेकर यह सम अलंकार भी घटित हो ही जाता है। श्लेष के द्वारा प्रतीत असत् अर्थ की इष्टावाप्ति की प्रतीति मात्र का उदाहरण भी हो सकता है, जैसे कोई नायक नायिका से कह रहा है: - हे सुन्दरी, तप सुगति के लिए होता है, यह सच ही है, क्योंकि कमल जल में रह कर सूर्य की ओर देखा करता है और इस तरह तपस्या करके तुम्हारे चरणरूपी जन्म को प्राप्त कर अन्य कमलों से अधिक सुन्दर बनकर सुगति को प्राप्त करता है ।' ( यहाँ 'सुगति' के श्लेष के द्वारा इष्टावाप्तिप्रतीतिमात्र पाया जाता है, क्योंकि उत्तम लोक की गति के लिए तप करते हुए कमल को वह गति तो प्राप्त न हुई, किंतु नायिका के चरण वाले जन्म में सुगति ( सुंदर गमन, अच्छी चाल ) प्राप्त हुई । इस प्रकार 'गति' शब्द के श्लेष पर यहाँ कमल को केवल इष्टावाप्ति की प्रतीति होती है । ) ४०. विचित्र अलंकार ९४ - विचित्र कार्यकारणमूलक अलंकार है । जहाँ कोई व्यक्ति किसी फल की इच्छा से कोई यत्र करे, पर वह यत्न कविप्रतिभा के कारण काव्य में इस प्रकार सन्निवेशित किया जाय कि वह इच्छाप्राप्ति से विपरीत हो, तो वहाँ विचित्र अलंकार होता है । उदाहरण के लिये, सज्जन व्यक्ति इस त्रैलोक्य से उन्नति प्राप्त करने के लिए नम्र होते हैं । इस उदाहरण में उन्नति प्राप्त करने के लिए औन्नत्य का प्रयत्न करना चाहिए, जब कि सज्जन व्यक्ति ठीक उससे उलटा ( नमनक्रियारूप ) प्रयत्न कर रहे हैं, अतः यहाँ कारण कार्य का विचित्र मेल होने के कारण, विचित्र अलंकार है । अथवा जैसे— कोई कवि अपने आश्रयदाता राजा की प्रशंसा कर रहा है। हे देव, आपकी कीर्ति दुष्ट
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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