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________________ १४६ यथा वा कुवलयानन्दः तिलपुष्पात्समायाति वायुश्चन्दन सौरभः । इन्दीवरयुगा चित्रं निःसरन्ति शिलीमुखाः ॥ ८० ॥ विरुद्धात् कार्य संपत्तिर्दृष्टा काचिद्विभावना | सितांशुकिरणास्तन्वीं हन्त संतापयन्ति ताम् ॥ ८१ ॥ अत्र तापनिवर्तकतया तापविरुद्धैरिन्दु किरणैस्ता पजनिरुक्ता । यथा वा यथा वा उदिते कुमारसूर्ये कुवलयमुल्लसति भाति न क्षत्रम् | मुकुलीभवन्ति चित्रं परराजकुमारपाणिपद्मानि ॥ अविवेकि कुचद्वन्द्वं हन्तु नाम जगत्त्रयम् । श्रुतप्रणयिनोरक्ष्णोरयुक्तं जनमारणम् ॥ अथवा जैसे देखो तो बड़े आश्चर्य की बात है, तिल के पुष्प (नासिका) से चन्दन की सुगंध वाला वायु (निःश्वास) आ रहा है, तथा दो नील कमलों (नेत्रद्वय) से बाण (कटाक्ष) गिर रहें हैं । (यहाँ 'तिलपुष्प' चन्दनसुरभि का अकारण है, इसी तरह नील कमल बाणों के अकारण हैं, एक का कारण चन्दन है, दूसरे का तरकस । कवि ने नासिका, नेत्रद्वय तथा कटाक्ष को तिलपुष्प, इन्दीवरद्वय तथा शिलीमुख के द्वारा अध्यवसित कर दिया है, अतः इस अंश में अतिशयोक्ति है | ) (पाँचवी विभावना ) ८१ - यहाँ विरोधी कारण ( कारण के ठीक विरोधी तत्व ) से कार्योत्पत्ति हो ? वह दूसरे ढंग की विभावना होती है जैसे, बड़ा दुःख है, उस कोमलांगी को चन्द्रमा की शीतल किरणें संतप्त करती हैं । चन्द्रमा की किरणें ताप को मिटाती हैं, अतः वे ताप विरुद्ध हैं, किन्तु यहाँ उनसे ताप का उत्पन्न होना वर्णित किया गया है, अतः यह पांचवीं विभावना का उदाहरण है । अथवा जैसे कोई कवि किसी राजकुमार की प्रशंसा कर रहा है । आश्चर्य है, जब कुमार रूपी सूर्य उदित होते हैं तो कुमुदिनी (कुवलय, परिहारपक्ष में पृथ्वी मंडल ) विकसित होती है, नक्षत्र प्रकाशित होते हैं ( परिहारपक्ष में-भाति न क्षत्रम् अन्य क्षत्रिय सुशोभित नहीं होते), तथा शत्रुराजकुमारों के करकमल बन्द हो जाते हैं ( परिहार पक्ष - अधीनता स्वीकार कर शत्रु राजकुमार अंजलि बांधे खड़े रहते हैं ) । " (यहां रूपक अलंकार पर विभावना आश्रित है, इसके साथ ही 'कुवलय' तथा 'नक्षत्रं ' का सभंग श्लेष भी रूपक को परिपुष्ट कर विभावना की सहायता करता है। इसमें सूर्योदय के समय कुमुदादि के विकासादि का वर्णन विरोधाभास अलंकार को भी पुष्ट करता है, जिस पर विभावना आश्रित है | ) अथवा जैसे मूर्ख (अविवेकी, परिहारपक्ष में- परस्पर अत्यधिक संश्लिष्ट ) स्तनद्वय यदि तीनों लोकों को मारें तो मारें, ( क्योंकि वे मूर्ख जो हैं), किंतु वेदादि शास्त्र का अभ्यास करने वाले (श्रुतप्रणयी, परिहार- कानों तक लम्बे ) नेत्रों का मनुष्यों को मारना अनुचित है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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