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________________ १३८ कुवलयानन्दः ~~ यत्तस्य दैत्या इव लुण्ठनाय काव्यार्थ चोराः प्रगुणीभवन्ति ॥ गृह्णन्तु सर्वे यदि वा यथेच्छं नास्ति क्षतिः कापि कवीश्वराणाम् | रत्नेषु लुप्तेषु बहुष्वमत्यैरद्यापि रत्नाकर एव सिन्धुः || प्रथम लोकेन प्रार्थितस्य काव्यार्थ चोरेभ्यो रक्षणस्य स्वोल्लिखितवैचियाणां समुद्रगतरत्न जातवदक्षयत्वं विचिन्त्य प्रतिषेध आक्षेपः ॥ ७३ ॥ निषेधाभासमाक्षेपं बुधाः केचन मन्वते । नाहं दूती तनोस्तापस्तस्याः कालानलोपमः ॥ ७४ ॥ केचिदलङ्कारसर्वस्वकारादय इत्थमाहुः - न निषेधमात्रमाक्षेपः, किंतु यो www अमृत के समान मधुर है, बड़ी सावधानी से रक्षा करो, क्योंकि उस काव्यामृत को लूटने के लिए कई काव्यर्थचौर दैत्यों की तरह बढ़ रहे हैं। अथवा काव्यार्थ - चौरों को काव्यामृत चुराने भी दो, वे सब इसका यथेच्छ ग्रहण करें, इससे श्रेष्ठ कवियों की कोई हानि नहीं, देवताओं और दैत्यों ने समुद्र से अनेकों रत्नों को ले लिया, पर समुद्र आज भी रत्नाकर बना हुआ है।' यहाँ पहले श्लोक में कवि ने काव्यार्थ चौरों से काव्यामृत की रक्षा करने की प्रार्थना की थी, किन्तु जब उसने यह सोचा कि उसके द्वारा काव्य में प्रयुक्त अर्थ - वैचित्रय तो समुद्र की रत्नराशि की तरह अक्षय हैं, तो उसने अपनी प्रथम उक्ति का निषेध कर इस बात का संकेत किया है कि काव्यार्थ - चौर मजे से उसके अर्थ वैचित्र्य को चुराते रहें, इससे उसके काव्य की कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि वह तो अनेकों रत्नों से भरा है, तथा उसके सौंदर्य रत्न का लोप होना असंभव है । टिप्पणी- आक्षेप के इसी प्रकार का एक उदाहरण मेरे 'शुम्भवधम्' महाकाव्य से निम्न पद्य दिया सकता है: - आदौ किमत्र परिशीलनमीदृशानां मुञ्चन्ति नो कथमपि प्रकृतिं निजां ते । यद्वा खलः प्रतनुतेऽक्षतमेव लाभं गावः क्षरन्ति पयसामतुलं रसौधम् ॥ (१.७ ) यहाँ पूवार्ध में प्रश्न के द्वारा इस उत्तर की व्यंजना की गई है कि काव्य के आरम्भ में दुष्टों का वर्गन ठीक नहीं, किन्तु बाद में विचार कर इसका प्रतिषेध करने के लिए 'यद्वा' के द्वारा उत्तरार्ध का संनिवेश किया है। ( रुय्यक ने इसे आक्षेप का उदाहरण नहीं माना है । अपि तु उसने ठीक इसी उदाहरण को देकर इसमें 'आक्षेप' मानने वालों का खंडन किया है: - 'इह तु - 'साहित्यपाथो सिन्धु' इति नाचेपबुद्धिः कार्या । विहितनिषेधो ह्ययम् । न चासावाक्षेपः । निषेधविधौ तस्य भावादित्युक्तत्वात् । चमत्कारोऽप्यत्र निषेधहेतुक एवेति न तावद्भावमात्रेणाक्षेपबुद्धिः कार्या ।' ) ७४ – कुछ विद्वान् निषेधाभास को आक्षेप अलंकार मानते हैं, जैसे (कोई दूती नायक से नायिका की विरहवेदना के विषय में कह रही है ) हे नायक, मैं दूती नहीं हूँ, उस नायिका के शरीर का ताप कालाग्नि के समान (असह्य ) है । कुछ विद्वान् (केचित् ) अर्थात् अलंकार सर्वस्वकार रुय्यक आदि विद्वान् ( पूर्वोक्त
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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