SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० कुवलयानन्दः अधं दानववैरिणा गिरिजयाऽप्यर्ध शिवस्याहृतं देवेत्थं जगतीतले स्मरहराभावे समुन्मीलति । गङ्गा सागरमम्बरं शशिकला नागाधिपः दमातलं सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत्त्वां, मां च भिक्षाटनम् ।। अत्राद्योदाहरणे सप्तसप्तिपदगतश्लेषमूलनिन्दाव्याजेन स्तुतिय॑ज्यते । द्वितीयोदाहरणे 'सर्वज्ञः सर्वेश्वरोऽसि' इति राज्ञः स्तुत्या 'मदीयवैदष्यादि दारिद्रयादि सर्व जानन्नपि बहुप्रदानेन रक्षितुं सक्तोऽपि मह्यं किमपि न ददासि' इति निन्दा व्यज्यते । सर्वमिदं निन्दा-स्तुत्योरेकविषयत्वे उदाहरणम् । तेरा शौर्यमद व्यर्थ है। जब तू लड़ने के लिए एक घोड़े पर सवार होता है, तो तेरे शत्रु राजा सात घोड़ों (सप्तसप्ति-सूर्य) पर सवार हो जाते हैं।' यहाँ 'तू तो एक ही घोड़े पर सवार होता है, और तेरे शत्रु राजा सात घोड़ों पर सवार होते हैं-इस प्रकार तेरे शत्रु राजाओं की विशिष्ट वीरता के रहते तेरा शौर्यदर्प व्यर्थ है' यह वाच्यार्थ है, इस वाच्यार्थ में राजा की निन्दा की गई है किन्तु कवि का अभीष्ट राजा की निंदा करना न होकर स्तुति करना है, अतः यहाँ इस राजपरक स्तुति की व्यंजना होती है कि 'ज्योंही तुम युद्ध के लिए घोड़े पर सवार होते हो, त्योंही तुम्हारे शत्रु राजा वीरगति पाकर सूर्य मण्डल का भेद कर देते हैं, अतः तुम्हारी वीरता धन्य है।' यहां 'सप्तसप्ति' पद में श्लेष है । देखियेद्वावेतौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ । परिवाड योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥) (स्तुति के द्वारा निन्दा की व्यंजना का उदाहरण ) कोई दरिद्र कवि राजा की कृपणता की निंदा करता कह रहा हैः- 'हे राजन् , शिवजी के शरीर का आधा भाग तो दैत्यों के शत्रु विष्णु ने छीन लिया और बाकी आधा (वाम) भाग पार्वती ने ले लिया। इस प्रकार संसार कामदेव के शत्रु शिव से रहित हो गया। शिव के अभाव में शिव के पास की समस्त वस्तुएँ दूसरे लोगों के पास चली गई। गंगा समुद्र में चली गई, चन्द्रमा की कला आकाश में जा बसी, सर्पराज पाताल में घुस गया, सर्वज्ञत्व तथा अधीश्वरत्व (प्रभुत्व) तुम्हारे पास आया और शिवजी का भिक्षाटन (भीख माँगना) मुझे मिला। यहाँ राजा शिव के समान सर्वज्ञ तथा सर्वेश्वर है, यह स्तुति वाच्यार्थ है, किन्तु इससे यह निन्दा व्यञ्जित हो रही है कि 'तुम मेरी दरिद्रता को जानते हो तथा उसको हटाने में समर्थ हो, फिर भी बड़े कंजूस हो कि मेरी दरिद्रता को नहीं हटाते'।) ___ यहाँ पहले उदाहरण में 'सप्तसप्ति' पद में प्रयुक्त श्लेष के द्वारा निन्दा के व्याज से स्तुति की व्यञ्जना हो रही है। दूसरे उदाहरण में 'तुम सर्वज्ञ तथा सर्वेश्वर हो' इस राज. परक व्याजरूपा स्तुति के द्वारा 'तुम मेरी विद्वत्ता तथा दरिद्रता आदि सब कुछ जानते हो, फिर भी बहुत सा दान देकर मेरी रक्षा करने में समर्थ होने पर भी कुछ भी दान नहीं देते, यह निंदा व्यंजित होती है। ये निंदा तथा स्तुति के समानविषयत्व (एकविषयत्व ) के उदाहरण हैं, अर्थात् यहाँ उसी व्यक्ति की निन्दा या स्तुति से उसी व्यक्ति की स्तुति या _निन्दा व्यंजित हो रही है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy