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________________ पर्यायो कालङ्कारः परिम्लानं पीनस्तनजघन सङ्गादुभयत स्तनोर्मध्यस्यान्तः परिमिलनमप्राप्य हरितम् | इदं व्यस्तन्यासं प्रशिथिलभुजाक्षेपवलनैः कृशाङ्गयाः संतापं वदति नलिनीपत्रशयनम् ॥ ६७ ॥ २९ पर्यायोक्तालङ्कारः पर्यायोक्तं तु गम्यस्य वचो भङ्गयन्तराश्रयम् । नमस्तस्मै कृतौ येन मुधा राहुवधूकुचौ ॥ ६८ ॥ १२१ रत्नावलीनाटिका में राजा उदयन सागरिका की कमलदल शय्या को देखकर उसके विरहताप का वर्णन करते कह रहे हैं :- यह कमलदल की शय्या पीनस्तन तथा जघन के सम्पर्क के कारण दोनों ओर से कुम्हला गई है, जबकि सागरिका के अत्यधिक सूक्ष्म मध्य भाग से असंपृक्त होने के कारण बीच में हरी है; और उसके अत्यधिक शिथिल हाथों के फेंकने के कारण इसकी रचना अस्तव्यस्त हो गई है। इस प्रकार यह कमल के पत्तों की शय्या दुबले पतले अङ्गों वाली सागरिका के विरहताप की व्यञ्जना कराती है। ( यहाँ कवि ने ही स्वयं 'कृशांग्याः सन्तापं वदति विसिनीपत्रशयन' कह कर ऊपर के तीन चरणों में निबद्ध कार्य के कारण का स्पष्टतः अभिधान कर दिया है, अतः यहाँ विरहताप रूप प्रस्तुत अर्थ व्यंग्य नहीं रह पाया है । फलतः यहाँ प्रस्तुतांकुर ( या अप्रस्तुत प्रशंसा ) अलंकार न हो कर अनुमान अलंकार ही मानना होगा । ) २९. पर्यायोक्त अलंकार ६८ - जहाँ व्यंग्य अर्थ की बोधिका रीति से भिन्न अन्य प्रकार से ( भंग्यंतर के आश्रय द्वारा ) व्यंग्य अर्थ की प्रतीति हो, वहाँ पर्यायोक्त अलंकार होता है । जैसे, जिन ( विष्णु भगवान् ) ने राहु दैत्य की स्त्री के कुचों को व्यर्थ बना दिया उनको नमस्कार है । टिप्पणी - कुम्भकोणम् से प्रकाशित कुवलयानंद में इस कारिका के पूर्व कोष्ठक में निम्न वृत्ति मिलती है : -- (ननु, प्रस्तुत कार्याभिधानमुखेन कारणस्य गम्यत्वमपि प्रस्तुतांकुर विषयश्चेत् किं तर्हि पर्यायोक्तमित्याकांक्षायामाह ' - ) ( वही पृ० १३७ ) भाव यह है, अप्पयदीक्षित ने पूर्वोक्त प्रस्तुतांकुर में एक सरणि वह भी मानी है, जहाँ प्रस्तुत कार्य के द्वारा प्रस्तुत कारण की व्यंजना हो; किंतु प्राचीन आलंकारिक रुथ्यकादि ने प्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण की व्यंजना में पर्यायोक्त अलंकार माना है, तो पूर्वपक्षी यह शंका कर सकता है कि जहाँ रुय्यकादि पर्यायोक्त मानते हैं, वहाँ आप प्रस्तुतांकुर मानते हैं, तो फिर पर्यायोक्त का लक्षण क्या है ? इसका समाधान करने के लिए ही पर्यायोक्त का प्रकरण आरंभ करते हुए कहते हैं : -- ( जयदेव ने पर्यायोक्त या पर्यायोक्ति का लक्षण भिन्न दिया है, उसके अनुसार प्रस्तुत कार्य द्वारा प्रस्तुत कारण की प्रतीति में पर्यायोक्ति अलंकार होता है । अप्पयदीक्षित ने प्रस्तुत कार्य के द्वारा प्रस्तुत कारण की प्रतीति में प्रस्तुतांकुर अलंकार माना है, तो फिर पर्यायोक्त अलंकार क्या होगा ? यह शंका उपस्थित हो सकती है। इसीलिए दीक्षित ने पर्यायोक्त का लक्षण जयदेव के अनुसार निबद्ध न कर रुय्यक के अनुसार निबद्ध किया
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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