SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ : कुवलयानन्दः वामेनात्र वटस्तमबगजनः सर्वात्मना सेवते, न च्छायापि परोपकारकरणी मार्गस्थितस्यापि मे ॥ इत्यत्र चेतनाचेतनप्रश्नोत्तरवत्तिर्यगामन्त्रणस्यात्यन्तमसम्भावितत्वाभावात् । एवं प्रस्तुतेन वाच्यार्थेन भृङ्गोपालम्भरूपेण वक्त्रयाः कुलवध्वाः सौन्दर्याभिमानशालिन्याः क्रूरजनपरिवृत्तिदुष्प्रधर्षायां परवनितायां विसर्व - स्वापहरण संकल्प दुरासदायां वेश्यायां वा कण्टकसंकुल केतकी कल्पायां प्रवर्तमानं प्रियतमं पत्युपालम्भो द्योत्यते । अलंकार ही मानते हैं। उनके मत से प्रस्तुतांकुर अलंकार अप्रस्तुतप्रशंसा में ही अन्तर्भावित हो जाता | उद्योतकार ने इसीलिए प्रस्तुतांकुर को अलग अलंकार मानने का खंडन किया है :अत्रेवं बोध्यम्-अप्रस्तुतपदेन मुख्यतात्पर्यविषयीभूतार्थातिरिकोऽथ ग्राह्यः । एतेन - किं भृङ्ग सत्यां मालत्यां केतक्या कंटकेडया' इत्यत्र प्रियतमेन साकमुद्याने विहरती का प्रत्येवमाहेति प्रस्तुतेन प्रस्तुतान्तरद्योतने प्रस्तुतांकुरनामा भिन्नोऽलंकार इत्यपास्तम् । मदुक्तरीत्यास्या एवं संभवात् । यदा मुख्यतात्पर्यविषयः प्रस्तुतश्च नायिकानायकवृत्तान्तत दुस्कर्षया गुणीभूतव्यंग्यस्तदाऽत्र सादृश्यमूला समासोक्तिरेवेति केचित् । अन्ये स्वप्रस्तुसेन प्रशंसेत्यव्य प्रस्तुतप्रशंसाशब्दार्थः । एवं च वाच्येन व्यक्तेन वाऽप्रस्तुतेन वाक्यं व्यक्तं वा प्रस्तुतं यत्र सादृश्याद्यन्यतमप्रकारेण प्रशस्थत उत्कृष्यत इत्यर्थादपीयमेवेत्याहुरिति दिकू । ( उद्योत पृ० ४९० ) 'कोई पथिक ( या कवि ) शाखोटक ( सेहुँड ) के पेड़ से पूछ रहा है :- 'भाई तुम कौन हो ?' ( शाखोटक उत्तर देता है ) 'कहता हूँ भाई, मुझ अभागे को शाखोटक वृक्ष समझो ।' (पथिक फिर पूछता है ) 'तुम इतने वैराग्य से क्यों बोल रहे हो ।' ( शाखोटक उत्तर देता है ) 'तुमने ठीक समझा', (पथिक पूछता है ) ' तो तुम्हारे वैराग्य का कारण क्या है ?' ( शाखोटक उत्तर दे रहा है ) 'देखो, रास्ते के बाईं ओर जो बरगद का पेड़ है, उसके नीचे जाकर राहगीर विश्राम लेते हैं और मैं रास्ते के बीचोंबीच खड़ा हूँ, पर फिर भी मेरी छाया परोपकार करने में असमर्थ है। ( यहाँ शाखोटक वृतान्त के द्वारा ऐसे दानी व्यक्ति की व्यंजना होती है, जो दान तो देना चाहता है पर उसके पास धनादि नहीं है, अथवा यहाँ अधम जाति में उत्पन्न दानी की व्यंजना होती है, जिसके दान को कोई नहीं लेता । ) टिप्पणी- - मम्मट ने इस पद्य में अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार माना है । यद्यपि यहाँ शाखोटक वृक्ष को संबोधित करके वाच्यार्थ का उपयोग किया गया है, अतः वह प्रस्तुत हो जाता है, तथापि मम्मट ने उसे इसलिये प्रस्तुत नहीं माना है । वस्तुतः यहाँ वाच्यार्थं संभावित नहीं होता तथा व्यंग्यार्थं के अध्यारोपमात्र से अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार मानना पड़ता है। प्रदीपकार ने इसीलिए शाखोटक में संबोध्यत्व तथा उच्चारयितृत्व का घटित होना नहीं माना है :- 'अन्न वाच्य शाखोटके संबोध्यस्वोच्चारयितृत्वमनुपपन्नमिति प्रतीयमानाध्यारोपः । ( प्रदीप पृ० ४८९ ) अप्पयदीक्षित को यह मत पसन्द नहीं। वे यहाँ शाखोटक में संवोध्यत्वाभाव नहीं मानते, तभी तो वे कहते हैं - 'तिर्यगामन्त्रस्यात्यंतमसंभावितत्वाभावात् ।' इस प्रकार सिद्ध है कि 'किं भृङ्ग सत्यां' आदि पद्यार्ध में भृङ्गवृत्तान्त रूप वाच्यार्थ प्रस्तुत ही है, उसके द्वारा भृङ्ग का उपालंभ कर सौन्दर्य आदि के कारण अभिमानवाली कुलवधू अपने उस प्रिय के प्रति उपालंभ कर रही है, जो क्रूर मनुष्यों के साथ रहने के कारण
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy