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________________ ‰= अत्र प्रागेव सामर्षे शिशुपाले रुक्मिणीहरणादिना वैरं दृढीकृतवता कृष्णेन तस्मिन्नुदासितुमयुक्तमिति वक्तव्येऽर्थे प्रस्तुते तत्प्रत्यायनार्थ सामान्यमभिहितम् । यथा वा- कुवलयानन्दः सौहार्द स्वर्ण रेखाणामुच्चावच भिदाजुषाम् । परोक्षमिति कोऽप्यस्ति परीक्षानिकषोपलः ॥ अत्र 'यदि त्वं प्रत्यक्ष इव परोक्षेऽपि मम हितमाचरसि, तदा त्वमुत्तमः सुहृत्' इति विशेषे वक्तव्यत्वेन प्रस्तुते सामान्यमभिहितम् ॥ विशेषनिबन्धना यथा ( माघ, २।५३ ) - अङ्काधिरोपितमृगश्चन्द्रमा मृगलान्छनः । केसरी निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथो मृगाधिपः । अत्र कृष्णं प्रति बलभद्रवाक्ये मार्दवदूषणपरे पूर्वप्रस्तावानुसारेण 'क्रूर एव ख्याति भाग्भवति, न तु मृदु:' इति सामान्ये वक्तव्ये तत्प्रत्यायनार्थमप्रस्तुतो विशेषोऽभिहितः । एवं बृहत्कथादिषु सामान्यतः कचिदर्थं प्रस्तुत्य तद्विवरणार्थमप्रस्तुतकथाविशेषोदाहरणेष्वियमेवाप्रस्तुतप्रशंसा द्रष्टव्या ।। माघ के द्वितीय सर्ग में बलराम की उक्ति है। : जो व्यक्ति क्रोधी शत्रु के प्रति वैर करके फिर उसके प्रति उदासीन हो जाते हैं, वे वास के ढेर में आग लगाकर हवा की दिशा में सोते हैं ।' यहाँ पहले से ही क्रोधी शिशुपाल के प्रति रुक्मिणीहरण आदि कार्यों के द्वारा वैर दृढ करके कृष्ण को अब उसके प्रति उदासीन होना ठीक नहीं है' - इस प्रस्तुत (विशेष) वक्तव्य अर्थ की व्यंजना के लिए यहाँ सामान्यरूप अप्रस्तुत वृत्तान्त का प्रयोग किया गया है । सामान्यरूप अप्रस्तुत वृत्तान्त से विशेषरूप प्रस्तुत वृत्तान्त की व्यंजना का एक और उदाहरण देते हैं। : कोई व्यक्ति किसी मित्र से कह रहा है : - 'मित्रता रूपी स्वर्ण की शुद्धता अशुद्धता की परीक्षा करने के लिए उच्चता व निकृष्टता के अन्तर वाली मित्रता रूपी स्वर्ण रेखाओं की परीक्षा की कसौटी परोक्ष है ।' यहाँ कोई व्यक्ति अपने मित्र से यह कहना चाहता है कि 'तुम उत्तम कोटि के मित्र तभी सिद्ध होवोगे, जब मेरे सामने ही नहीं पीछे भी मेरा हित करोगे'। यह अभीष्ट अर्थ प्रस्तुत है, यहाँ कवि ने इस ( विशेष रूप ) प्रस्तुत अर्थ की व्यञ्जना के लिए सामान्य रूप अप्रस्तुत वाच्यार्थ का प्रयोग किया है। विशेषनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा वहाँ होगी, जहाँ विशेष रूप अप्रस्तुत के द्वारा सामान्य रूप प्रस्तुत की व्यंजना हो, जैसे माघ के द्वितीयसर्ग से ही बलराम की उक्ति है : 'हिरन को अंक में रखने वाला चन्द्रमा मृगलान्छन ( हिरन के कलंक वाला ) कहलाता है, जबकि निर्दय होकर हिरनों के झुण्ड को परास्त करने वाला सिंह मृगाधिप ( हिरनों का स्वामी ) कहलाता है ।' बुरा यह कृष्ण के प्रति बलभद्र की उक्ति है। इस उक्ति में कोमलता ( मार्दव ) को बताने के लिए 'क्रूर व्यक्ति ही ख्याति प्राप्त करता है, कोमल प्रकृति वाला नहीं' इस
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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