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________________ १०० कुवलयानन्दः www. बलात्तत्तद्विषयशक्त्यन्तरोन्मेषपूर्वकमप्रस्तुतार्थः स्फुरेत् । न चैतावता तस्य व्यङ्ग्यत्वम् ; शक्त्या प्रतिपाद्यमाने सर्वथैव व्यक्त्यनपेक्षणात् । पर्यवसिते प्रकृतार्थाभिधाने पश्चात्स्फुरतीति चेत्, - कामं गूढश्लेषो भवतु | किसी अर्थ की प्रतीति हो सकती है, वहाँ व्यंजना की कोई आवश्यकता नहीं ह । यदि पूर्वपती पुनः यह दलील दे कि यहाँ अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति प्राकरणिक अर्थ के साथ ही नहीं हो रही है, अपि तु वह प्राकरणिक अर्थ की प्रतीति के समाप्त होने पर प्रतीत होता है, (भतः अभिधा शक्ति या श्लेष कैसे माना जाय ), तो इसका उत्तर यह दिया जा सकता है कि यहाँ श्लेष ही है, हाँ वह गूढश्लेष है, इसीलिए दूसरे ( अप्राकरणिक ) अर्थ की प्रतीति झटिति नहीं हो पाती । टिप्पणी- आलंकारिकों में प्रकृताप्रकृतश्लेष वाले प्रकरण को लेकर अनेक वाद-विवाद हुए हैं । इन सब की जड़ मम्मटाचार्य का वह वचन है, जहाँ वे शब्दशक्तिमूलध्वनि में अप्रकृतार्थ को व्यंग्य मानते हैं । मम्मट के मत से अभिधाशक्ति के द्वारा केवल प्रकृत अर्थ ( जैसे 'असावुदयमारूढः ' राजा बाला अर्थ ) ही प्रतीत होता है, तदनन्तर अभिधाशक्ति के प्रकृत अर्थ में नियन्त्रित होने से व्यञ्जना के द्वारा अप्रकृत अर्थ ( चन्द्रमा वाला अर्थ ) प्रतीत होता है । अतः चन्द्रपक्ष वाला अर्थ भी व्यंग्य है, साथ ही उससे प्रतीत उपमा अलंकार ( उपमानोपमेयभाव ) भी। मम्मट के मत से शब्दशक्तिमूलध्वनि का लक्षण यों है: : अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते । संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृद्वयावृतिरञ्जनम् ॥ ( काव्यप्रकाश २, १९ ) यहाँ 'अवाच्यार्थधीकृद्व्यापृतिरञ्जनम्' से स्पष्ट है कि मम्मट को अप्रकृतार्थ का व्यंग्यव अभीष्ट है । मम्मट के द्वारा उदाहृत इस पद्य में : भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोविशालवंशोन्नतेः कृतशिलीमुख संग्रहस्य । यस्यानुपप्लुतगतेः परवारणस्य दानाम्बुसेकसुभगः सततं करोऽभूत् ॥ राजपक्ष प्रकृत है, हस्तिपक्ष अप्रकृत । मम्मट के मत में हस्तिपक्ष वाला अर्थ तथा हस्तिराजोपमानोपमेयभाव दोनों व्यंग्य है। इसीलिए गोविन्द ठक्कुर ने प्रदीप में स्पष्ट लिखा है कि गजवाला अर्थ व्यञ्जना से ही प्रतीत होता है : - ' अत्र प्रकरणेन 'भद्रात्मन' इत्यादिपदानां राज्ञि तदन्वयायोग्ये चार्थेऽभिधा नियन्त्रणेऽपि गजस्य तदन्वययोग्यस्य चार्थस्य व्यञ्जनयैव प्रतीतिः । (प्रदीप पृ० ६९ ) गोविन्द ठक्कुर ने यहीं शब्दशक्तिमूलध्वनि का ( अर्थ - ) इलेष से क्या भेद है, इसे भी स्पष्ट किया है। वे बताते हैं कि इसका समावेश अर्थश्लेष में नहीं हो सकता ( अर्थात् दोनों अर्थों की प्रतीति अभिधावृत्ति से ही नहीं हो सकती ), जहाँ कवि का तात्पर्य दोनों अर्थों में हो अर्थात् दोनों अर्थ प्रकृत हों, जहाँ कवि का तात्पर्य एक ही अर्थ में हो, और वहाँ विशिष्ट सामग्री के कारण ( अप्रकृत ) द्वितीयार्थ की प्रतीति भी होती हो तो वह व्यन्जना के ही कारण होती है । क्योंकि अर्थश्लेष वहीं होगा ननूपमानोपमेयभावकल्पनाच्छन्दश्लेषतो भेदेऽपि 'योऽसकृत्परगोत्राणां' इत्याद्यर्थश्लेषतः कुतोऽस्य भेदः । अर्थश्लेषे चोभयत्र शक्तिरेव न व्यञ्जनेति चेदुच्यते । यत्रो भयोरर्थयोस्तात्पर्यं स श्लेषः । यत्र स्वेकस्मिन्नेव तत्, सामग्रीमहिम्ना तु द्वितीयार्थप्रतीतिः सा व्यञ्जनेति । ( प्रदीप पृ० ६९-७० ) जैसा कि हम ऊपर देखते हैं अप्पयदीक्षित को यह मत मान्य नहीं । वे प्रकृता प्रकृतार्थद्वय प्रतीति में भी ध्वनित्व नहीं मानते, अपि तु अलंकारत्व ही मानते हैं । उनके अनुसार दोनों अर्थ
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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