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________________ ६२ कुवलयानन्दः w प्रस्तुतकामुकादिसंबन्धित्वेनावगम्यमानस्य तस्यारोपः तथाभूतस्यैव रसानुगुणत्वात् । न च तावदवगमने विशेषणपदानां सामर्थ्य मस्ति । अतः श्लेषादिमहिना विशेषणपदैः स्वरूपतः समर्पितेन वदनचुम्बनादिना तत्संबन्धिनि कामुकादावभिव्यक्ते पुनस्तदीयत्वानुसंधानं तत्र भवति । यथा स्वरूपतो दृष्टेन राजाश्वादिना तत्संबन्धिन राजादौ स्मारिते पुनरश्वादौ तदीयत्वानुसंधानं तद्वदिति विशेषणसाम्येन वाच्योपस्कारकस्याप्रस्तुतव्यञ्जनस्यास्त्यपेक्षा । अत एव लिष्टविशेषणायामिव साधारण विशेषणाया मध्यप्रस्तुतव्यवहारसमारोप इत्येव प्राचीनानां प्रवादः कन्दुके व्यावलगत्कुचभारत्वादि विशिष्टवनिता सेव्यत्वस्य कामुकसंबन्धित्वेनैव समारोपणीयत्वात् | स्वरूपतः कन्दुकेऽपि तस्य सत्त्वेनासमारोपणीयत्वात् । किं च सारूप्यनिबन्धनत्वेनोदाहृतायां समासोक्तावप्रस्तुतवृत्तान्तस्याशब्दार्थस्याप्रस्तुतवृत्तान्त रूपेणैवावगम्यतया तेन रूपेणैव तत्र समारोपसिद्धेरन्यत्रापि तथैव युक्तमिति युक्तमेव प्राचीनानां लक्षणमिति विभावनीयम् ।। ६१ ।। क्रिया का आरोप पाया जाता है, तो इसमें कोई चमत्कार नहीं हो सकता, क्योंकि चन्द्रमा ( अचेतन पदार्थ ) निशा ( अचेतन पदार्थ ) का चुम्बन करता है, यहाँ तभी चमत्कार माना जा सकता है, जब हम चन्द्रमानिशावृत्तान्त पर इस वृत्तान्त का आरोप करें कि कोई कामुक उपपति किसी परकीया के मुख का सानुराग चुंबन कर रहा है। ऐसा मानने पर यहाँ रति की प्रतीति होगी, तथा यही अर्थ रसानुगुण हो सकता है। यदि कोई यह कहे कि तत्तत् विशेषणों से ही यह प्रतीति हो जायगी, तो इसका उत्तर यह है कि विशेषण पदों में उस जारत्वादिविशिष्ट वदनचुंबनादि की व्यञ्जना कराने की शक्ति नहीं है । वस्तुतः श्लेषादि के कारण पहले तो उन उन प्रस्तुतपरक विशेषणों से हमें अप्रस्तुत वदनचुम्वनादि की प्रतीति होती है, तब इस वदनचुम्बनादि के द्वारा तत्संबंधी चेतन कामुकादिव्यञ्जित होता है, तदनंतर फिर हम 'यह वदनचुम्बनादि कामुकादि का 'है' इस प्रतीति पर पहुँचते हैं । दृष्टान्त के लिए मान लीजिये, हमने कोई राजा का घोड़ा ( राजाश्व ) जैसा पदार्थ देखा, तब हम उस घोड़े आदि को देखकर एक दम उसके संबंधी राजादि का स्मरण करते हैं और फिर पुनः राजा के साथ उस घोड़े का संबंध जोड़कर 'यह राजा का घोड़ा है' ऐसा अनुभव प्राप्त करते हैं, ठीक इसी तरह विशेषणसाम्य के द्वारा वाच्यार्थ के द्वारा उपस्कृत अप्रस्तुत ( जारादि ) की व्यञ्जना का होना जरूरी होता है । इसलिए प्राचीनों का ऐसा मत रहा है कि लिष्टविशेषणा समासोक्ति की तरह साधारण विशेषणा समासोक्ति में भी अप्रस्तुत व्यवहार समारोप पाया जाता है । 'व्यावहगत्कुचभार' आदि पद्य में कंदुक के 'व्यावलगत्कुचभारत्वादिविशिष्ट वनिता के द्वारा सेवित किया जाना रूप' विशेषण का कामुक से संबन्ध जोड़कर ही अप्रस्तुत ( कामुकवृत्तान्त ) का प्रस्तुत (कंदुकवृत्तांत ) पर व्यवहार-समारोप हो सकता है । वैसे ये विशेषण कन्दुक में भी पाये जाते हैं, पर इनका आरोप तभी हो सकता है, अब वह अप्रस्तुत कामुक संबन्ध से युक्त हो अन्यथा नहीं। साथ ही सारूप्यनिबंधना समासोक्ति में भी अप्रस्तुतवृत्तान्त (जैसे 'पुरा यत्र स्रोतः' पद्य में कुटुम्बियों की समृद्ध्यसमृद्धि) वाच्यार्थ नहीं है, अतः उसकी प्रतीति अप्रस्तुतवृत्तांत रूप में ही होती है तथा इसी रूप में उसका समारोप प्रस्तुतवृत्तांत (क्षितिरुघन विरलभावविपर्यास) पर होता है, ठीक यही बात समासोक्ति के अन्य स्थलों भी मानना ठीक है, अतः प्राचीनों का लक्षण ठीक ही है, यह ध्यान देने योग्य है । ?
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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