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________________ निदर्शनालङ्कारः उदयन्नेव सविता पद्मेष्वर्पयति श्रियम् । विभावयन् समृद्धीनां फलं सुहृदनुग्रहः ॥ ५६ ॥ कस्यचित्किंचित्क्रियाविशिष्टस्य स्वक्रियया परान्प्रति असतः सतो वाऽर्थस्य बोधनं यन्निबध्यते तदपरां निदर्शनामाहुः । असदर्थबोधने उत्तरार्धमुदाहरणम् । तत्र नश्येदिति बोधयदिति वक्तव्ये बोधयदित्यस्य गम्यमानत्वादप्रयोगः । ततश्च राज्ञा चन्द्रेण सह विरुध्य स्वयं नाशक्रियाविशिष्टं तमः स्वकीयनाशक्रियया भूता अन्योऽप्येवं राजविरुद्धश्चेन्नश्येदित्यनिष्टपर्यवसायिनमथं बोधयदेव नष्टमित्यर्थ निबन्धनादसदर्थनिदशना । तथा उत्तरश्लोके सविता स्वोदयसमय एव पद्मषु लक्ष्मीमादधानः स्वया पद्मलक्ष्म्याधानक्रियया परान्प्रति समृद्धीनां फलं सुहृदनुग्रह एवेति श्रेयस्करमर्थ बोधयन्निबद्ध इति सदर्थनिदर्शना । यथा वा ७७ उन्नतं पद्मवाप्य यो लघुर्हेलयैव स पतेदिति ब्रुवन् । शैलशेखरगतः पृषद्रणश्चारुमारुतधुतः पतत्यधः ॥ अत्र गिरिशेखरगतो वृष्टिबिन्दुगणो मन्दमारुतमात्रेणापि कम्पितः पतन् लघोरुन्नतपदप्राप्तिः पतन हेतुरित्यसदर्थं बोधयन्निबद्ध इत्यसदर्थनिदर्शना । निदर्शना का उदाहरण है ।) 'समृद्धि का फल यह है कि मित्रों के प्रति कृपा की जाय'इस बात को संकेतित करता सूर्य उदित होते ही कमलों में शोभा का संचार कर देता है ।' ( यह संत् अर्थरूपा निदर्शना का उदाहरण है । ) जहाँ किसी विशिष्ट क्रिया से युक्त कोई पदार्थ अपनी क्रिया से अन्य व्यक्तियों के प्रति असत्या सत् अर्थ का बोधन कराये, वहाँ दूसरी निदर्शना होती है । प्रथम पद्य के उत्तरार्ध में असत् अर्थ के बोधन का उदाहरण है। इस उदाहरण में 'नश्येत् इति बोधयत् ' का प्रयोग करना अभीष्ट था, किन्तु कवि ने 'बोधयत् ' पद को व्यंग्य रखा है, अतः उसका प्रयोग नहीं किया है । इस उदाहरण में राजा अर्थात् चन्द्रमा के साथ विरोध करने पर स्वयं नाशक्रिया से युक्त ( अर्थात् नष्ट होता ) अन्धकार अपनी नाशक्रिया के दृष्टान्त से इस बात का बोध कराता नष्ट हो रहा है कि राजा से विरोध करने वाला अन्य व्यक्ति भी इसी तरह नष्ट हो जायगा - इस प्रकार यहाँ असत् अर्थ का बोधन कराने के कारण यहाँ असदर्थनिदर्शना है । दूसरे श्लोक में, सूर्य उदय होने के समय ही कमलों में शोभा का संचार कर अपनी पद्मलक्ष्म्याधान क्रिया ( कमलों में शोभा का निक्षेप करने की क्रिया ) के द्वारा दूसरे व्यक्तियों को इस सत् अर्थ की सूचना देता है कि 'समृद्धि का फल सुहृदनुग्रह ही है' - इस प्रकार यहाँ सदर्थनिदर्शना पाई जाती है । अथवा जैसे 'पर्वत-शिखर पर आरूढ जलसमूह मन्द हवा के झोंकों से नीचे यह बताते हुए गिर रहा है कि क्षुद्र व्यक्ति को उच्च पद की प्राप्ति हो जाने पर भी, उसे नीचे गिरना ही पड़ता है ।' यहाँ पर्वत शिखर पर पड़ा हुआ वृष्टिबिन्दुसमूह मन्द हवा के झोंके से काँप कर गिरते हुए इस असत् अर्थ का बोधन कराता है कि तुच्छ व्यक्ति की उच्चपदप्राप्ति उसके पतन का कारण है— अतः यहाँ असदर्थनिदर्शना है ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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