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________________ उत्प्रेक्षालङ्कारः ३६ अत्र पलाशकुसुमानां वक्रत्वलोहितत्वेन संबन्धेन निमित्तेन सद्यःकृत नखक्षततादात्म्यसंभावनादुक्तविषया स्वरूपोत्प्रेक्षा ! पूर्वोदाहरणे निमित्तभूतधर्मसंबन्धो गम्यः, इह तूपात्त इति भेदः । नन्विवशब्दस्य सादृश्यपरत्वेन प्रसिद्धतरत्वादुपमैवास्तु | 'लिम्पतीव' इत्युदाहरणे लेपनकर्तुरुपमानत्वार्हस्य क्रियोपसर्जनत्ववदिह नखक्षतानामन्योपसर्जनत्वस्योपमाबाधकस्याभावादिति चेत्, उच्यते- उपमाया यत्र क्वचित्स्थितैरपि नखक्षतैः सह वक्तुं शक्यतया वसन्तनायकसमागतवनस्थली संबन्धित्वस्य विशेषणस्यानपेक्षितत्वादिह तदुपादानं पलाशकुसुमानां नखक्षततादात्म्यसंभावनायामिवशब्दमवस्थापयति । तथात्व एव तद्विशेषणसाफल्यात् । अस्ति च संभाव - नायां 'इव' शब्दो 'दूरे तिष्ठन्देवदत्त इवाभाति' इति । यहाँ पलाशमुकुलों के टेढ़ेपन तथा ललाई के सम्बन्ध के कारण हाल में किये गये नखक्षत के साथ उनकी तादाम्य सम्भावना की गई है। यहाँ उक्तविषया वस्तूप्रेता ( स्वरूपोत्प्रेक्षा ) है । पहले उदाहरण ( 'धूमस्तोम' इत्यादि ) तथा इस उदाहरण में यह भेद है कि वहाँ संभावना के निमित्त, धर्मसंबंध का साक्षात् उपादान नहीं किया गया है, वह गम्य ( व्यंग्य ) है, जब कि यहाँ 'वक्रत्व' तथा 'लोहितत्व' के द्वारा उसका वाच्यरूप में उपादान पाया जाता है । इस उदाहरण में 'इव' ( नखक्षतानीव ) शब्द का प्रयोग देखकर पूर्वपक्षीको शंका होती है कि यहाँ 'इव' शब्द का प्रयोग होने से उपमा अलङ्कार हो सकता है, क्योंकि इव सादृश्यवाचक शब्द है । यदि सिद्धान्तपक्षी यह कहे कि 'लिंपतीव तमगानि' आदि में भी 'इव' शब्द का प्रयोग था, जैसे वहाँ उत्प्रेक्षा मानी गई वैसे ही यहाँ भी होगी - तो इस पर पूर्वपक्षी की यह दलील है कि वहाँ तो सिद्धान्तपक्षी के ही मत से 'तमस' के लेपनक्रिया के उपसर्जनीभूत ( अंग ) बनने के कारण उसे लेपनकर्ता का उपमानत्व मानने में प्रतिबन्धक दिखाई पड़ता है, किन्तु 'नखचतानीव वनस्थलीनाम् ' वाले प्रकरण में तो नखक्षतों में गौणत्व नहीं पाया जाता, जो उसके उपमान बनने में बाधुक हो । सिद्धान्तपक्षी पूर्वपक्षी के इस मत से सहमत नहीं । उसका कहना है कि यदि ऐसी शंका उठाई जाती है, तो उसका समाधान यों किया जा सकता है । यदि उपमा अलङ्कार माना जाय, तो हम देखते हैं कि उपमा में तो किन्हीं नखक्षत के साथ ( पलाशकुसुंमों की ) उपमानिबद्ध करना संभव है, तथा उपमा अलङ्कार में नखक्षतों के इस विशेषण की कोई आवश्यकता नहीं कि वे वसन्त नायक के द्वारा संयुक्त वनस्थली (नायिका) से संबद्ध हैं । अतः उपमा तो इस विशेषण के बिना ही संभव थी। पर हम देखते हैं कि कवि ने इस विशेषण का प्रयोग किया है, अतः यह प्रयोग इसीलिए किया गया है कि वह पलाशकुसुमों की नखक्षत के साथ तादात्म्यसंभावना करना चाहता है, इस प्रकार 'इव' शब्द इस संभावना को दृढ करता है । अतः पलाशकुसुमों की नखक्षततादाम्यसंभावना मानने पर ही ( तथास्वे एव ) कवि के द्वारा उपन्यस्त विशेषण ( सद्यो वसन्तेन समागतानां ) सफल माना जायगा । यदि कोई यह पूछे कि 'इव' शब्द तो केवल सादृश्यवाचक है, उत्प्रेक्षा में उसका प्रयोग कैसे हो सकता है, तो इसका समाधान करते सिद्धान्तपक्षी कहता है कि 'इव' शब्द का प्रयोग संभावना में भी होता देखा जाता है, उदाहरण के लिए इस वाक्य में - ' वह
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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