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________________ उल्लेखालङ्कारः २५ गजत्रातेति वृद्धाभिः श्रीकान्त इति यौवतैः ।। यथास्थितश्च बालाभिदृष्टः शौरिः सकौतुकम् ॥ अत्र यस्तथा भीतं भक्तं गजं त्वरया त्रायते स्म सोऽयमादिपुरुषोत्तम इति वृद्धाभिः संसारभीत्या तदभयार्थिनीभिः कृष्णोऽयं मथुरापुरं प्रविशन् दृष्टः । यस्तथा चश्चलत्वेन प्रसिद्धायाः श्रियोऽपि कामोपचारवैदग्ध्येन नित्यं वल्लभः सोऽयं दिव्ययुवेति युवतिसमूहैः सोत्कण्ठैदृष्टः । बालाभिस्तु तद्वाह्यगतरूपवेषालङ्कारदर्शनमात्रलालसाभिर्यथास्थितवेषादियुक्तो दृष्ट इति बहुधोल्लेखः । पूर्वः कामत्वाद्यारोपरूपकसंकीर्णः । अयं तु शुद्ध इति भेदः ॥ २२ ॥ एकेन बहुधोल्लेखेऽप्यसौ विषयभेदतः। गुरुर्वचस्यर्जुनोऽयं कीौं भीष्मः शरासने ॥ २३ ॥ __ ग्रहीतृभेदाभावेऽपि विषयभेदाद्वहुधोल्लेखनादसावुल्लेखः । उदाहरणं श्लेष. संकीर्णम् । वचोविषये महान्पटुरित्यादिवबृहस्पतिरित्याद्यर्थान्तरस्यापि क्रोडीकरणात् । जब कृष्ण मथुरा में पहुंचे, तो बूढी औरतों ने उन्हें कुवलयापीड हाथी को मारकर लोगों की रक्षा करने वाला (अथवा ग्राह से गज की रक्षा करने वाला भगवान् ) समझा, युवती स्त्रियों ने साक्षात् विष्णु के समान सुन्दर तथा आकर्षक समझा, तथा बालिकाओं ने उन्हें बालक समझा। इस प्रकार प्रत्येक स्त्री ने कृष्ण को कुतूहल से अपने अनुरूप देखा। यहाँ 'मथुरा में प्रवेश करते कृष्ण' को संसारभय से अभयप्रार्थिनी वृद्धाओं ने उन साक्षात् पुरुषोत्तम के ही रूप में देखा, जिन्होंने भयभीत गज की ग्राह से रक्षा की थी। युवती रमणियों ने उन्हें उत्कण्ठापूर्वक स्वयं दिव्ययुवक विष्णु के रूप में देखा, जो चञ्चलता के कारण प्रसिद्ध लक्ष्मी को भी कामोपचार चतुर होने के कारण बड़े प्रिय हैं । बालिकाओं ने कृष्ण को यथास्थित रूप में ही देखा, क्योंकि उनकी लालसा केवल कृष्ण के बाह्यरूप वेष, अलंकार आदि के दर्शन ही में थी। इस प्रकार यहाँ कृष्ण का अनेक प्रकार से उल्लेख किया गया है। यहाँ भी उल्लेख अलंकार है । 'स्त्रीभिः'इत्यादि उदाहरण तथा इस उदाहरण में यह भेद है कि वह रूपक अलंकार से संकीर्ण है, वहाँ विषय (राजा) पर कामदेवादि विषयित्रय के धर्म का आरोप पाया जाता है, जब कि यह शुद्ध उल्लेख का उदाहरण है। . २३-जहाँ एक ही व्यक्ति अनेक विषयों का (विषयभेद के कारण) बहुत प्रकार से वर्णन करे, वहाँ भी उल्लेख होता है। यह उल्लेख अलंकार का दूसरा भेद है। यह राजा वाणी में गुरु (बृहस्पति, महान् पटु) है, कीर्ति में अर्जुन (कुन्तीपुत्र अर्जुन के समान; श्वेत) है, धनुर्विद्या में भीष्म (शन्तनुपुत्र भीष्म, भयंकर है) जहाँ विषय का ग्रहीता एक ही हो, फिर भी विषय के भेद से उनका अनेक प्रकार से उल्लेख किया जाय, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है। उपर्युक्त कारिकाध का उदाहरण श्लेषसंकीर्ण है, क्योंकि गुरु, अर्जुन, भीष्म के दो-दो अर्थ हैं। 'गुरुर्वचसि' में वाणी के संबंध में 'महान् पटु' इस अर्थ की भाँति 'बृहस्पति' इस द्वितीय अर्थ की भी प्रतीति हो रही है। इसी प्रकार 'अर्जुन' तथा 'भीष्म' इन शब्दों से भी 'धवल' तथा 'भयंकर' इन अर्थों के अतिरिक्त 'कुन्तीपुत्र अर्जुन' तथा 'शान्तनुपुत्र भीष्म' वाले अर्थ की भी प्रतीति होती है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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