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________________ परिणामालङ्कारः दाहरणम् यत्रारोप्यमाणो विषयी किंचित्कार्योपयोगित्वेन निबध्यमानः स्वतस्तस्य तदुपयोगित्वासंभवात्प्रकृतात्मना परिणतिमपेक्षते तत्र परिणामालङ्कारः । अत्रो - प्रसन्नेति । अत्र हि अब्जस्य वीक्षणोपयोगित्वं निबध्यते, न तु दृशः । मयूरव्यंसकादिसमासेनोत्तरपदार्थप्राधान्यात् । न चोपमितसमासाश्रयणेन गजमिवेति पूर्वपदार्थ प्राधान्यमस्तीति वाच्यम् । प्रसन्नेति सामान्यधर्मप्रयोगात् । ' उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे' ( पा० २।१।५६ ) इति तदप्रयोग एवोपमितसमासानुशासनात् | अब्जस्य वीक्षणोपयोगित्वं न स्वात्मना संभवति । अतस्तस्य प्रकृतद्यगात्मना परिणत्यपेक्षणात् परिणामालङ्कारः । यथा वा तीर्त्वा भूतेश मौलिस्रजममरधुनीमात्मनासौ तृतीय स्तस्मै सौमित्रिमैत्रीमयमुपकृतवानातरं नाविकाय | व्यामग्राह्यस्तनीभिः शबरयुवतिभिः कौतुकोदचदक्षं कृच्छ्रादन्वीयमानः क्षणमचलमथो चित्रकूटं प्रतस्थे ॥ २३ जिस स्थल में आरोप्यमाण अर्थात् विषयी ( चन्द्रकमलादि ) काव्य में किसी कार्यविशेष के लिए प्रयुक्त किया गया हो, किन्तु वह विषयी स्वयं उस कार्य के उपयोग में समर्थ नहीं हो पाये और उस कार्य के समर्थ होने के लिए वह प्रकृत (विषय) के स्वरूप को धारण करने की अपेक्षा रखता हो, वहाँ परिणाम अलंकार होता है। इसका उदाहरण 'प्रसन्नेन' इत्यादि श्लोकार्ध से उपन्यस्त किया गया है। इस श्लोकार्ध के 'हगब्ज' पद को वीक्षण क्रिया का उपयोगी माना गया है, यहाँ उत्तर पद 'अब्ज' की प्रधानता है, जो वीक्षणक्रिया से सम्बद्ध होता है, पूर्वपद 'हक' नहीं। क्योंकि यहाँ 'मयूरव्यंसकादि' समास के अनुसार उत्तर पदार्थ की प्रधानता है। संभवतः पूर्वपक्षी इस सम्बन्ध में यह शंका करे कि यहाँ उपमा अलंकार क्यों न माना जाय, क्योंकि 'हक अब्जमिव' (नेत्र, कमल के समान ) इस तरह विग्रह करके उपमित समास माना जा सकता है, तथा इस सरणि का आश्रय लेने पर यहाँ पूर्व पदार्थ (हक) का प्राधान्य हो । इस शंका का उठाना ठीक नहीं। क्योंकि उपमित समास वहीं हो सकता है, जहाँ कोई सामान्य धर्म प्रयुक्त न हुआ हो। इस पद्य में 'प्रसन्न' इस सामान्य धर्म का प्रयोग पाया जाता है । पाणिनिसूत्र 'उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे' के अनुसार सामान्य धर्म का प्रयोग न होने पर ही उपमितसमास का विधान किया गया है। अतः यहाँ मयूरव्यंसकादि समास ही मानना पड़ेगा। अब 'अब्ज' ( उत्तर पदार्थ ) की प्रधानता होने पर भी, वह स्वयं ( स्वरूप से ) दर्शनक्रिया में उपगोगी नहीं हो सकता। इसलिए उसको प्रकृत (हक) के रूप में परिणत होना अपेक्षित है, अतः यहाँ परिणाम अलंकार है । ऊपर का उदाहरण समासगत है, अब समासभिन्न स्थल से परिणाम का उदाहरण देते हैं .:: : अपने आप तीसरे ( अर्थात् सीता एवं लक्ष्मण इन दो व्यक्तियों से युक्त ) इन रामचन्द्र ने शिवजी के मस्तक की माला देवनदी गंगा को पार कर, उस केवट के लिए लक्ष्मण के मित्रतारूपी किराये (तरणमूल्य - आतर) को देकर उसका उपकार किया । इसके बाद वे कुछ देर तक भीलों की युवतियों के द्वारा - जिनके अतिपुष्ट स्तन टेढ़े फैलाये हुए
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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