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________________ अध्यात्मविचारणा २२ हो; इसलिए वस्तुतः तुम दोनों भृतचैतन्यवादी ही हो । वे पुनजन्म माने बिना ही अपने चैतन्यवादकी स्थापना करते हैं और तुम पुनर्जन्मको मानकर चैतन्यवादकी प्रतिष्ठा करते हो; इतना ही तुम दोनोंके बीच अन्तर है । ऐसा लगता है कि इस तरह के किसी विचारसंघर्ष के ' परिणामस्वरूप तत्त्वाद्वैत विचारसरणीकी भूमिकाने, जो सांख्यपरम्पराका प्राचीन स्वरूप है, अपना रुख बदला और उसने तत्त्वाद्वैत के स्थानपर तत्त्वद्वैत स्वीकार किया। पहले तत्त्वाद्वैतकी मान्यता के समय जो अव्यक्त, चेतना, आत्मा और पुरुष जैसे शब्द एक ही अर्थ में पर्यायरूपसे प्रयुक्त होते थे, वे अब तत्त्वद्वैतकी मान्यता के समय सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होने लगे । इस भूमिका में एक तत्त्व सर्वथा जड़रूप माना गया तो दूसरा तत्व सर्वथा चेतनरूप | जड़ तत्त्व में चेतनाशक्तिका अभाव और चेतन में जड़शक्तिका अभाव है - इस प्रकारकी सुनिश्चित मान्यताका निर्माण हुआ । सांख्यपरम्पराकी यह दूसरी भूमिका थी । इस भूमिका में जड़रूप मूल तत्त्व अव्यक्त, प्रकृति अथवा प्रधान जैसे नामों से १. राशि पुरुषवादी सांख्यको सामने रखकर उसकी सीधी समालोचना किसीने की हो तो वह हमारे देखने में नहीं आई; पर नैयायिक, वेदान्ती व जैन श्रादिने ऐसा स्थापन तो किया ही है कि परिणामी बुद्धिसत्त्व में ज्ञानसुख-दुःख आदि संभव नहीं हैं, वे तो चेतन श्रात्मा में ही शक्य हैं । ऐसा कहते समय उनका श्राशय तो यही है कि स्वतंत्र चेतन न मानकर केवल प्रकृति के धर्मरूपसे ज्ञान-सुख-दुःख श्रादिकी उपपत्ति नहीं हो सकती । अतएव पचीस तत्त्ववादी सांख्य को लेकर जो खण्डन किया गया है वह राशि पुरुष अर्थात्ं चौबीस तत्त्ववादी सांख्यपर और भी अच्छी तरह लागू होता है । २. यह भूमिका ईश्वरकृष्णकी सांख्यकारिका आदि में वर्णित है ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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