SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ ] वृत्तमौक्तिक समकक्ष है । सारा विश्व इसी से विकसित होता है । आच्छादनभाव को स्पष्ट करने के लिए 'छदिच्छन्दः' नाम का विशेष रूप से इसमें उल्लेख किया गया है।' यह एक छन्द ही विविध रूपों में एक से अनेक हो जाता है। इन विभिन्न छन्दों में आत्मा आच्छादित हो कर व्याप्त हो जाती है । प्रात्मा 'छन्दोमा' के रूप में विविध छन्दों को प्रकाशित करती है । छन्द से छन्दित छन्दोमा स्वयं छन्द है और ज्योतिस्वरूप होने से उसका सम्बन्ध दीप्ति से तथा आनन्दस्वरूप होने से आह्लाद से भी जुड़ जाता है । चदि धातु से निष्पन्न छन्द (मूल रूप चन्द) का प्रयोग ऐसे प्रसंगों में होता रहा ज्ञात होता है । प्राण (प्राणा वै छन्दांसि) , सूर्य (छन्दांसि वै व्रजो गोस्थानः )४ और सूर्य रश्मियों (ऋग्वेद ११६२।६) को छन्द कहने का कारण भी दीप्तियुक्त होना ही ज्ञात होता है । लोक में भी गायत्री आदि पद्य, वेद, पार्षग्रन्थ, संहिता, इच्छा, अनियन्त्रित प्राचार आदि अर्थों में प्रयुक्त छन्द शब्द देखा जाता है । ये सब एक छन्द शब्द के विविध अर्थ नहीं हैं, वरन् इन-इन अर्थों में प्रयुक्त अलग-अलग शब्द हैं। किसी समय इनका सूक्ष्म भेद सुविज्ञात था। स्वर आदि द्वारा यह भेद स्पष्ट कर दिया जाता था। कालान्तर में अन्य शब्दों की तरह ये सारे शब्द एक छन्द शब्द में श्लिष्ट हो गये और उनके स्वर-चिह नों ने भी उदात्तादि प्रबल स्वरों में अपना अस्तित्व खो दिया। साहित्य में छन्द ऊपर छन्द के विविध अर्थों में एक गायत्री आदि छन्द का भी उल्लेख किया गया है । वाङ्मय में छन्द का विशिष्ट महत्त्व है । कात्यायन के अनुसार सारा वाङ्मय छन्दोरूप है - छन्दोमूलमिदं सर्वं वाङ्मयम् । छन्द के बिना वाक् उच्चरित नहीं होती। कोई शब्द छन्द रहित नहीं होता। इसीलिए गद्य और पद्य दोनों को छन्दोयुक्त माना जाता है।'' १-वैदिक दर्शन -डॉ० फतहसिंह, पृष्ठ १८२-१८३ २-वैदिक दर्शन पृ० १८४ तथा उसमें उद्धृत ताण्ड्य महाब्राह्मण १४।११।१४ ३-कौषीतकि ब्राह्मण ७६, १११८, १७२ ४-तैत्तिरीय ब्रह्मण ३।२।९।३।। ५-वैदिक छन्दोमीमांसा. प० ७-८ ६-शब्दों के विकास की ऐसी प्रवृत्ति के लिए देखें-'ऋग्वेद में गोतत्त्व'-बद्रीप्रसाद पंचोली ७-ऋग्यजुष परिशिष्ट ५; तुलनीय छन्दोऽनुशासन-जयकीर्ति, ११२ ८-नाच्छन्दसि वागुच्चरति इति -निरुक्त ७।२, दुर्गवृत्ति ६-छन्दोहीनो न शब्दोऽस्ति -नाट्यशास्त्र १४/१५ १०-वैदिक छन्दोमीमांसा, पृ० ८
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy