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________________ जाकर सब का आदरणीय होता है। जो लोहा अधम पुरुषों के हाथ में रह कर कभी अग्नि में जलाया जाता है, कभी मुद्गरों से पीटा जाता है और रात्रि दिवस असंख्य जीवों की हिंसा करने में लगा रहता है परन्तु उसको कहीं पारस पत्थर के साथ समागम हो जाय तब वह सुवर्णमय हो कर नृपतिवरों के कर कमलों में प्रतिदिन कण कुंडलादि पदवी पाकर विलास किया करता है इसी से कहा है 'पारस और सत्संग में, बड़ो अन्तरो जान। वह लोहा कञ्चन करे, वह करे सन्त समान' सत्संग के विषय में एक कवि ने भी वर्णन किया है कियदि सत्सङ्कनिरतो, भविष्यसि भविष्यसि। यदि दुःसङ्कविषये, पतिष्यसि पतिष्यसि।।१।। काचः काञ्चनसंसर्गाद्, धत्ते मुक्ताफलद्युतिम् । तथा सत्सन्निधानेन, मूर्खा याति प्रवीणताम् ।।२।। भावार्थ यदि सन्त समागम में निरत होंगे तो इहलोक में सुख प्राप्ति कर अन्त में परमपद के अधिकारी बनोगे यदि पुनरपि दुर्जन के सहचारी बनोगे तो नीचे ही गिर जाओगे, जिस प्रकार काँच कांचन के संसर्ग से मुक्ताफल की छवि को धारण करता है उसी प्रकार सत्संग से मूर्ख भी प्रवीण (बुद्धिमान) हो जाता है। सत्संगति ही वाणी में सत्यता का प्रादुर्भाव करती है, और यही विद्वज्जनों में मानप्रदायिनी तथा पापप्रणाशिनी, शोकादि को दूर कर चित्त प्रसन्न करने वाली निखिल दिशाओं के मध्य में कीर्ति करने वाली है, जिस देश में सत्संगति का प्रचार है उस देश में सदैव सुख शान्ति तथा एकता की धारा मन्दाकिनी (स्वर्गगंगा) की धारा की समान आनन्द की लहरें लेती हुई बहा करती है, और उस देश के वासी स्वप्न में भी दुःख के भागी नहीं होते, तथा उस देश की उन्नति को देख देव, गंधर्व, किन्नर आदि आकाश में विराजमान हो कीर्ति का गान करते हैं। जिस देश के पुरुष सजन पुरुषों के अनुकूल नहीं चलते या जिस देश में सज्जन पुरुषों का आदर नहीं है, अथवा जिस देश में सज्जन पुरुषों का वास नहीं है, उस देश को जड़ता, द्वेष, श्री गुणानुरागकुलक ७५
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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