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________________ प्रथम संस्करण से किञ्चिद्वक्तव्य प्रियपाठक महानुभाव ! यह 'गुणानुराग-कुलक' आर्या छन्दों में एक छोटा अठाईस गाथा का प्राकृत-पद्य ग्रन्थ है। इसकी रचना श्रीसोमसुन्दरसूरिजी महाराज के शिष्य पं. श्री जिनहर्षगणिजी ने की है । ग्रन्थ छोटा होने पर भी सारगर्भित और बोधप्रद है । इसी का यह स्वतन्त्र हिन्दी अनुवाद है। इसमें पहले प्रत्येक गाथा की संस्कृत - छाया, उसका शब्दार्थ, और भावार्थ लिख देने के बाद विस्तृत विवेचन सरल और सरस हिन्दी भाषा में लिखा गया है, प्रसङ्गप्राप्त कहीं-कहीं दृष्टान्त देकर भी विषय का समर्थन किया गया है । इस ग्रन्थ पर भिन्न-भिन्न विद्वानों की तरफ से कोई चार-पाँच हिन्दी - गुजराती विवेचन (विवरण) बनकर प्रकाशित भी हो चुके हैं, लेकिन वे चाहिये वैसे नहीं बने हैं, और हैं भी संक्षिप्त ऐसा कह कर हम अपना गौरव दिखलाना नहीं चाहते, किन्तु इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि उन सब विवेचनों से यह विवेचन पाठकों को विशेष आनन्ददायक होगा। क्योंकि मूल ग्रन्थकार के आशय को इस विवेचन में अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों से रोचक बनाया गया है। इस विवेचन में इक्कीसवीं गाथा का विवेचन करते हुए मार्गानुसारी ३५ गुणों का वर्णन किया गया है, वह श्रीधर्मसूरिविरचित — धर्मदेशना जो कि गुजराती भाषा में है, उसके चतुर्थ - प्रकरण से ज्यों का त्यों उद्धृत करके रक्खा गया है। उसमें प्रसंगवश किसी-किसी जगह विषय की रोचकता बढ़ाने के लिये अधिक भी वर्णन किया गया है। यह बात बिलकुल निर्विवाद है कि- 'मनुष्य - मनुष्य तभी से बनता है, जब वह दुर्व्यसनों और दुष्टविचारों से अलग होकर अपने जीवन के गम्भीरतम नियमों की न्यायपरायणता को खोजने का प्रयत्न करने लगता है । '
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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