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________________ अनुक्रमणिका १३ १७ २८ 30 • किञ्चिद्वक्तव्य पृष्ठ क्र.६ • सुकृत सहयोगी • मङ्गलाचरणम् (पहला कुलग) • उत्तमगुणानुराओ (दूसरा कुलग) विर-१८, मात्सर्य-१६, द्वेष-20, कलह-२१, मैत्री भावना-२४, प्रमोद भावना-२५, कारुण्य भावना-२६, माध्यस्थ्य भावना-२७] •ते घना ते प्रमा (तीसरा कुलग) (वादत्रिपुरी-३२) • किं बहुणा भणिएणं (चौथा कुलग) (गुणानुराग के बिना पठन व्यथ) • जइ वि चरसि तवविडलं (पाँचवाँ कुलग) ३८ (गुणानुराग का महत्व) सोऊण गुणुकरिस (छठा कुलग) (मात्सर्य परित्याग-४४) गुणवंताण नराणं (सातवाँ कुलग) (मत्सर से की हुई निन्दा का फल) जो जंपइ परदोसे (आठवाँ कुलग) (मत्सरी-मनुष्य पलालपुंज से भी तुच्छ) • जं अब्भसेइ जीवो (नौवाँ कुलग) (सद अभ्यास की परभव में प्राप्ति) जैसा अभ्यास वैसा असर-६३, सत्पुरुषों के लक्षण-७0, सत्संग की महिमा-७४) • जो परदोसे गिणहई (दसवाँ कुलग) (परदोष ग्रहण से पाप का बन्य) • तं नियमा मुत्त्वं (ग्यारहवाँ कुलग) (क्रोध और उसका त्याग-८२, मान कषाय-८४, माया और उसका त्याग-८७) • जइ इच्छह गुरुअंत (बारहवौ कुलग) (अज्ञान और ज्ञान-१00) • चउहा पसंसिणिज्जा (तेरहवाँ कुलग) १०५ (पुरुष भेद से निन्दा का निषेध-१०५) ४६ ४८ ६० ७७
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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