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________________ सुखशांति का मार्ग नहीं मिलेगा, प्रत्युत भवभ्रमण ही करना पड़ेगा । मत्सर से की हुई निन्दा का फल* गुणवंताण नराणं, ईसाभरतिमिरपूरिओ भणसि । जइ कह वि दोसले, ता भमसि भवे अपारम्भि ||७|| शब्दार्थ - ( जइ ) जो तूं (ईसाभरतिमिरपूरिओ) अत्यन्त ईर्षारूप अंधकार से पूरित अर्थात् अंधा बन ( गुणवंताण) गुणवान ( नराणं) मनुष्यों के ( दोसलेसं ) थोड़े भी दोषों को (कहवि) किसी प्रकार से ( भणसि) बोलेगा (ता) तो (अपारम्भि) अपार (भवे) संसार में (भमसि ) परिभ्रमण करेगा। विवेचन - मत्सरी मनुष्य दिनान्ध हो घुग्घू की तरह सद्गुण रूपी सूर्य के प्रकाश को नहीं देख सकता, न सद्गुणों पर आनन्दित होता है, किन्तु दोषा (रात्रि) के समान दोषी के दोषों को देख कर आनन्दित हुआ करता है। मात्सर्य के कारण गुणवान महात्माओं की निन्दा कर मत्सरी संसार भ्रमण का भाजन बनता है। ईर्ष्यालु मनुष्य अविवेकों से लिपट कर गुरु शिष्य के सम्बन्ध में, पिता पुत्र के सम्बन्ध में और सहोदरों में या जाति में कुसंपरूप वज्रपात किये बिना नहीं रहता, अर्थात् — पूज्यवर्गों की आशातना या निन्दा करने से विलकुल नहीं डरता किन्तु जहाँ तक उससे बन पड़ता है, उनकी निन्दा कर महापातिकी बनता है, और हृदय की उदारता सुजनवर्ग से गुणप्राप्ती, गुणीसमागम आदि सद्मार्गों से शीघ्र पतित हो जाता है । क्योंकि ईर्ष्या – दूसरों का खंडन अपना मण्डन, दूसरों का अपकर्ष और अपना उत्कर्ष आदि को उत्तेजन करने की आकांक्षा बढ़ाती है। जैसे—हाथी छाया का अर्थी होकर किसी वृक्ष का आश्रय लेता है और आश्रय (विश्राम) के वाद उसी वृक्ष को छिन्न-भिन्न करने का उद्योग करता है, उसी प्रकार मत्सरी मनुष्य गुणीजनों के आश्रय में रहकर भी उनको पतित करने में उद्यत बना रहता है, और हर * गुणवतां नराणामीर्ष्याभरतिमिरपूरितो भणसि । यदि कथमपि दोषलेशं, ततो भ्रमसि भवेऽपारे । । ४६ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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