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________________ का आदर न कर केवल अपनी पकड़ी हुई कल्पित बात को ही सिद्ध करने में दत्त-चित्त रहते हैं और उसी की सिद्धि के लिये कुयुक्तियाँ लगा कर जिनवचनविरुद्ध कल्पित पुस्तकें निर्मित कर भद्र जीवों को सत्य मार्ग से भ्रष्ट करने में उद्यत बने रहते हैं। अभिमान के वश से दृष्टिराग में फसे हुए लोगों को चाहे जिस प्रकार से समझाया जाय परन्तु वे अपने आग्रह को छोड़ते नहीं है। प्रत्युत्त सत्य बातों को दूषित करने में सावधान रहते हुए सत्य मार्ग को स्वीकार नहीं करते, और न उनका अनुमोदन ही करते हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य स्वकृत 'वीतरागस्तोत्र' में लिखते हैं किकामरागस्नेहरागा - वीषत्करनिवारणौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि।।२।। भावार्थ-कामराग, (विषय की अभिलाषा से स्त्री में रहा हुआ जो प्रेम) तथा स्नेहराग (स्नेह के कारण से पुत्रों के ऊपर रहा हुआ माता पिताओं का जो प्रेम) ये दोनों राग तो थोड़े उपदेश से निवारण किये जा सकते हैं किन्तु दृष्टिराग (स्वगच्छ में बंधा हुआ दुराग्रह–ममत्वभाव) तो इतना खराब होता है कि सत्पुरुषों को भी छोड़ना कठिन है। अर्थात् गच्छममत्त्व में पड़े हुए अच्छे-अच्छे विद्वान् आचार्य-उपाध्याय—साधु वर्ग भी अपना दुराग्रह शास्त्र विरुद्ध होते हुए भी उसे छोड़ते नहीं है और कुयुक्तियों के द्वारा सत्य बात का उपहास कर अनीति मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं। दृष्टिराग से ही मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ-भावना का नाश होता है और लोग कलह में प्रवृत्त होते हैं तथा धर्म के रास्ते को भूल कर दुर्गति के भाजन बनते हैं किन्तु सत्य धर्म को अंगीकार नहीं कर सकते। यहाँ पर यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि-दृष्टिराग तो दूसरे मतवालों के होता है, जैनों के तो नहीं ? इसका उत्तर यह है कि जैन दो प्रकार के हैं—एक तो द्रव्यजैन और दूसरे भावजैन। 'द्रव्यजैन' वे कहे जाते हैं जिन में आन्तरिक श्रद्धा नहीं किन्तु परम्परा या रूढ़ि से धार्मिक व्यवहार साँचवते हैं, तथा जो कन्याविक्रय करते हैं, और जो अपने स्वधर्मियों का अपमान कर विधर्मियों की उन्नति करने में तत्पर रहते हैं, एवं जो लोक दिखाऊ ४० श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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