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________________ कदाग्रह — दुराग्रह, मतममत्व, अहंकार, तिरस्कार, आत्मश्लाघा, मर्मभेदिता, दुर्गुणोद्भावना, दिल्लगी, उपहास्य, छलप्रपञ्च, कपट, कुटिलता आदि दोषजन्य दुर्गुणों का सर्वथा अभाव होता है। और शील, संतोष, विवेक आदि की प्रधानता रहती है, इससे इस वाद में अश्लील शब्दों का व्यवहार नहीं किया जा सकता, किन्तु परस्पर प्रेम पूर्वक मधुर वचनों से सशास्त्र पारमार्थिक विचार किया जाता है। इसलिये गुणानुरागी महानुभावों को मैत्री, प्रमोद, करुणा, और माध्यस्थ्य भावनाओं को धारण कर जहाँ खलपुरुषों का विशेष प्रचार न हो १, जहाँ दुर्भिक्ष या कृपण लोग न हों २, जहाँ राजा और सभासद सत्यप्रेमी हों ३, तथा प्रतिवादी परगुणग्रहणशाली हों ४, इत्यादि वादयोग्य सब तैयारी मिलने पर सत्तत्व का निर्णय करने के वास्ते धर्मवाद करना चाहिये। इस प्रकार के वाद से ही अज्ञान का विनाश और सद्धर्म का प्रकाश होता है। कहा भी है कि-' वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' वास्तव में धर्मवाद से ही सर्वत्र शान्तिभाव फैल कर वैर विरोध का अभाव होता है और सत्य धर्म की शुद्धि का उत्साह बढ़ता है, तथा हर एक शिक्षा का प्रभाव पड़ कर मात्सर्यभाव मिटता है, और संसार में पूज्यपद मिलता है। इससे पुरुषों को अपने प्रत्येक भाषण में मधुर और प्रिय वचनों का प्रयोग करना चाहिये। अपने शत्रु या अहितकर्त्ता के दोषों पर भी ध्यान न रख कर उनके गुणों के ऊपर ही अनुरागी बनना चाहिये । गुणानुराग के बिना विद्याऽभ्यासाऽऽदि सब व्यर्थ हैं* किं बहुणा भणिएणं, किं वा तविएण दाणेणं । इक्कं गुणाणुरायं, सिक्खह सुक्खाण कुलभवणं । ४ । शब्दार्थ - (बहुणा) अधिक (भणिएणं) पढ़ने से (वा) अथवा ( तविएण) तपस्या करने से, और (दाणेणं) दान देने से (किं) क्या होने * किं बहुना भणितेन किं वा तपसा दानेन ? । । एकं गुणानुरागं, शिक्षय सुखानां कुलभवनम् । । ? श्री गुणानुरागकुलक ३५
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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