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________________ महानुभावो! संसार में ऐसी कोई भी जाति अथवा योनि या स्थान किंवा कुल नहीं है, जहाँ कि यह जीव अनन्त बार उत्पन्न और मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो। इसी से कहा जाता है कि 'सब्बे सयणा जाया, सचे जीवा य परजणा जाया।' अर्थात् सब प्राणी परस्पर स्वजन सम्बन्धी हुए और सभी जीव परजन अर्थात् अपने से प्रेम नहीं रखने वाले भी हुए। अत एव एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के साथ हार्दिक प्रेम रखना चाहिये; किन्तु किसी के साथ राग-द्वेष परिणाम रखना ठीक नहीं है। प्रमोद भावना* अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः। १२६ । ____भावार्थ-संपूर्ण दोषों को हटा कर सूक्ष्म-विचार से वस्तु के तत्त्व को अवलोकन करने वाले मनुष्यों के गुणों पर जो पक्षपात रखना वह 'प्रमोद भावना' कही जाती है। विवेचन संसार में सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य, स्थैर्य, प्रियभाषण, परोपकार आदि सद्गुणों से विभूषित जो लोग हैं उनके गुणों पर पक्षपात—रखना चाहिये। क्योंकि उनके गुणों का पक्षपात करने से आत्मा सद्गुणी बनता है। जो लोग गुणीजनों के गुणों का बहुमान करते हुए उनकी प्रशंसा बढ़ा कर आत्मा को पवित्र बनाते हैं वे स्वयं गुणवान् होते हैं। किसी के अभ्युदय को देखकर अमर्ष (ईष्या) करने के समान संसार में कोई पाप नहीं है। वस्तुतः देखा जाय तो गुणद्वेषी मनुष्य महानिन्दनीय कर्म बाँध कर संसार कान्तार में पशु की तरह परिभ्रमण करता रहता है और अनन्त जन्म मरण आदि दुःख सहन करता है। बुद्धिमान पुरुषों को हर एक कार्य करते हुए विचारना चाहिये कि यह कार्य वर्तमान और अनागत काल में लाभ कारक होगा या नहीं? अगर लाभ कारक मालूम पड़ता हो तो उस कार्य में हस्ताक्षेप करना चाहिये। यदि हानि होती हो तो उससे अलग रहना चाहिये। अतएव महानुभावो! परदोषों को देखना छोड़ो और गुणीजनों के गुणों को देख कर हृदय से आनन्दित रहो। कहा भी है श्री गुणानुरागकुलक २५
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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