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________________ गुणानुराग उत्तम प्रकार का होना चाहिए, जिसमें कि किंचिन्मात्र विकार न हो। विवेचन-वैर, मात्सर्य, द्वेष, और कलह इन चार दुर्गुणों का प्रादुर्भाव जब तक हृदयक्षेत्र में रहता है, तब तक गुणों पर अनुराग नहीं होने पाता; इससे प्रथम इन्हीं दुर्गुणों का त्याग करना चाहिए। ॐ वैर * _ वैर एक ऐसा दुर्गुण है; जो प्रचलित संप (मिलाप) में विग्रह खड़ा कर देता है। वैर रखने वाले मनुष्यों को शास्त्रकारों ने अधमप्रकृतिवालों में माना है। सकारण या निष्कारण किसी के साथ वैर रखना निकाचित कर्मबन्ध का कारण है। वैर के प्रसंग से दूसरे अनेक दोषों का प्रादुर्भाव होता है, जिससे भवभ्रमण के सिवाय और कुछ फ़ायदा नहीं मिलता। अनादि काल से इन्हीं दोषों के सबब से यह चेतन महादुःखी हुआ, और पराभव के वश पड़ निजगुण को भूल गया। यहाँ तक कि तन, धन, स्वजन और कुटुम्ब से विमुख हो नरक गति का दास बना। सूत्रकृताइजी में सुधर्मस्वामी फ़रमाते हैं कि 'वैराणुबंधीणि महब्भयाणि' वैर विरोध के अनुबन्ध (कारण) महाभय उत्पन्न करते हैं और वे भय मनुष्यों (प्राणिमात्र) को अन्तराय किये बिना नहीं रहते। वैर भयकर अग्नि है। जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव सब को भस्म करने का होता है। उसी प्रकार वैर भी आत्मीय सब गुणों का नाश कर दुर्गात का पात्र बना देता है, और प्राप्त गुणों को नष्ट कर देता है। हृदय क्षेत्र में वैर का असर रहता है जब तक दूसरे गुणों का असर नहीं होने पाता, और किंचिन्मात्र सुखानुभव भी नहीं हो सकता। इसलिए वैर सब सद्गुणों का शत्रुभूत और संसारवर्द्धक है; ऐसा समझ कर कल्याणार्थी-महानुभावों को दुःखमय संसार से छूटने के निमित्त सद्गुणी बनकर नित्यानन्द प्राप्ति के लिए इस प्रकार की प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि 'मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझं न केणइ।' देव, दानव, आर्य, अनार्य, स्वधर्मी, विधर्मी, स्वगच्छीय, परगच्छीय, आदि सब प्राणियों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, परन्तु १८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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