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________________ क्या ? किन्तु शुद्धभाव और अनुराग रख कर श्रद्धापूर्वक एक वार भी जो स्त्री अथवा पुरुष नमस्कार करता है, तो उससे वह संसार समुद्र से तर (पार हो जाता है। तथा सर्वगुणसंपन्न जिनेश्वरों की सेवा भक्ति से ही मनुष्यों में सद्गुण प्रकट होते हैं, और उत्तमता प्राप्त होती है। यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि परमेश्वर तो विद्यमान नहीं हैं, फिर उनके चरण-कमलों में नमस्कार किस प्रकार किया जा सकता है ? इसके उत्तर में श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज ने लिखा है कितुममच्छिहिं न दीससि, नाराहिज्जसि पभूयपूयाहिं। किं तु गुरुभत्तिएणं, सुवयणपरिपालणेणं च।।२।। भावार्थ हे परमेश्वर ! आप नेत्रों से नहीं दीख पड़ते, और अनेक पूजाओं से भी आपकी आराधना नहीं हो सकती, किन्तु प्रभूत भक्ति (आन्तरिक श्रद्धा) से आपके यथार्थ दर्शन होते हैं और आपके सुवचन परिपालन (आज्ञाऽनुसार वर्त्तने) से आराधना भी भली प्रकार हो सकती है। इसलिए आन्तरिक श्रद्धा से सिद्धान्तोक्त परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर के प्ररूपित जो शास्त्र हैं, वे परमेश्वर की वाणीस्वरूप ही हैं। इससे उन शास्त्रों में जो जो धार्मिक आलम्बन बतलाये हैं, वे आचरण करने के योग्य ही हैं। जैनागमों में स्पष्ट लिखा है कि-चार-निक्षेप के बिना कोई भी वस्तु नहीं है। इसलिए परमेश्वर भी चार निक्षेपसंपन्न है। अत एव स्थापना-निक्षेप के अन्तर्गत परमेश्वर की तदाकार मूर्ति भी परमेश्वर के समान ही है। जिस प्रकार परमेश्वर सब प्राणियों के हितकर्ता हैं उसी तरह उनकी प्रतिमा (मूर्ति) भी अक्षयसुख-दायिका है। शास्त्रकारों ने चारों निक्षेपों को समान माना है, उनमें एक को मानना, और दूसरे को नहीं मानना मिथ्यात्व है। जिस तरह अलंकार सहित निर्जीव स्त्रियों का चित्र मनुष्यों के हृदय में विकार पैदा करता है, उसी प्रकार शान्त स्वरूप परमेश्वर की मूर्ति मनुष्यमात्र के हृदय-भवन में वैराग्य वासना पैदा कर देती है, और श्री गुणानुरागकुलक १५
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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