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________________ सुस्वादु और मिष्ट फल देते हैं । भिन्न-भिन्न रोगों की शान्ति के लिये जितने अवयव वृक्षों के काम आते हैं उतने किसी के नहीं आते। संजीविनी और कुष्टविनाशिनी आदि गुटिका वृक्षों की जाति से ही बनाई जाती हैं । उत्तम उत्तम वाद्यों का आनन्द वृक्षों के द्वारा ही होता है, तो गुणहीन को वृक्ष के समान मानना नीति विरुद्ध है। तदनन्तर धनपाल ने कहा तो गुणहीनों को 'मनुष्यरूपेण तृणोपमानाः' मनुष्यरूप से तृण के सदृश कहना चाहिये । तदनन्तर वादी ने तृण का पक्ष अवलम्बन कर कहा किगवि दुग्धं रणे ग्रीष्मे, वर्षाहेमन्तयोरपि । नृणां त्राणं तृणादेव, तत्समत्त्वं कथं भवेत् ? |११| भावार्थ — गोजाति में दूध होता है, संग्राम, वर्षा और हेमन्त ऋतु में तृण से ही मनुष्यों का रक्षण होता है। ये गुण गुणहीन पुरुष हैं इससे वह तृण के समान कैसे हो सकता हैं ? संसार में सभी प्राणियों का पालन तृण करता है यदि एक ही वर्ष तृण पैदा नहीं होता तो असंख्य प्राणियों के प्राण चले जाते हैं। मंदिर आदि जितनी इमारतें हैं वे तृण की सहायता से बनती हैं, यदि तृण न हो तो अमृत के समान मधुर दूध-दही भी मिलना कठिन है। विद्वान धनपाल ने कहा तो 'मनुष्यरूपेण हि धूलितुल्याः' मनुष्यरूप से धूलि समान मानना ठीक होगा। वधूलि का भी पक्ष लेकर कहाकारयन्ति शिशुक्रीड़ां पङ्कनाशं च रजस्तात्कालिके लेखे, क्षिप्तं, क्षिप्तं । कुर्वते । फलप्रदम् । । १२ । । भावार्थ- बालकों को लीला कराना, कीचड़ को नाश करना, तत्कालिक लेख में स्याही सुखाने के लिये डाला हुआ रज (धूलि ) शीघ्र फलदायक होता है। ये चार गुण धूलि में महत्त्वशाली हैं, अतएव गुणहीन धूलि तुल्य नहीं हो सकता । अन्त में अगत्या पण्डित धनपाल ने यह निर्धारित किया कि संसार मण्डल में प्रत्येक वस्तु गुणों से शोभित है किन्तु गुणहीन मनुष किसी प्रकार शोभा के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते। इसलिये हर एक मनुष्य को गुणरूप रत्न संग्रह करने में उद्यत रहना चाहिये, और जो गुणी हैं उनका यथाशक्ति बहुमान करना चाहिये। १८२ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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