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________________ अतएव प्रत्येक व्यक्ति में जो गुण हों उन्हीं का अनुकरण और बहुमान करना चाहिए। 'गुण के अनुकरण की अपेक्षा दोष का अनुकरण करना सुगम है, किन्तु दोष के अनुकरण में हानियाँ कितनी हैं ? इसे भी सोचना चाहिए। दस दोषों का अनुकरण न कर एक गुण का अनुकरण करना अच्छा है, जैसे दोष में अनेक बुराइयाँ भरी हैं वैसे ही गुण में अनेक लाभ हैं । ' चाहे जैन हो या जैनेतर, यदि वह सुशील, सहनशील, सत्यवक्ता और परोपकार आदि गुणों से युक्त हो तो उसको बहुमान देने में किसी प्रकार की दोषापत्ति नहीं है। यद्यपि जो लोग व्यभिचारी, हिंसक और परापवादी हैं उनका बहुमान करना ठीक नहीं है, तथापि निन्दा तो उनकी भी करनी अच्छी नहीं है । 'जहाँ द्वेष, निन्दा और अनादर विद्यमान है वहाँ स्वार्थ रहित प्रेम नहीं रहता, प्रेम तो उसी हृदय में वास करता है जो निन्दारहित हो । जो मनुष्य ईश्वरीय प्रेम प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह सर्वथा निन्दा करने के स्वभाव को जीत रहा है, क्योंकि जहाँ पवित्र आत्मीय ज्ञान है वहाँ निन्दा नहीं रह सकती। केवल वही मनुष्य सच्चे प्रेम का अनुभव कर सकता है और उसी हृदय में सच्चा और पूर्ण प्रेम रह सकता है, जो निन्दा के लिए सर्वथा असमर्थ है। स्वगच्छ या परगच्छ के गुणी साधुओं पर अनुराग*तनु परगच्छि सगच्छे, जे संविग्गा बहुस्सुया मुणिणो । तेसिं गुणाणुरायं, मा मुंचसु मच्छरम्पहओ । । २६ । । शब्दार्थ - (तनु ) इसलिये (परगच्छि सगच्छे) परगच्छ और स्वगच्छ में (जे) जो (संविग्गा) वैराग्यवान् (बहुस्सुया) बहुश्रुत (मुणिणो ) मुनि हों (सिं) उनके (मच्छरप्पहओ) मात्सर्यहत होकर तूं (गुणाणुरायं) गुणों का अनुराग (मा) मत (मुंचसु) छोड़ । * ततः परगच्छे स्वगच्छे, ये संविग्ना बहुश्रुता मुनयः । तेषां गुणानुरागं, मा मुञ्च मत्सर प्रहतः ।। २६ ।। १७२ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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