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________________ कदाचित् उग्रसंयम पालन करते न बने, तो स्त्रियों के परिचय से तो सर्वथा अलग ही रहना चाहिए, क्योंकि सुशील मनुष्य भी सामान्य से सज्जन और कृतपुण्य समझा जाता है। अनाचार सेवन करना महापाप है, दूसरे गुणों से हीन होने पर भी यदि अखंड ब्रह्मचर्य होगा तो उससे गुरुपद की योग्यता प्राप्त हो सकेगी, परन्तु ब्रह्मचर्य में गड़बड़ हुई तो वह किसी गुण के लायक नहीं रह सकता। साधु धर्म को स्वीकार करके जो गुप्तरूप से अनाचार सेवन, और मायास्थान सेवन करते हैं, उनसे गृहस्थधर्म लाख दरजे ऊँचा है, इसी से शास्त्रकार कहते हैं कि यदि साधुता तुम्हारे से न पाली जा सकती हो तो गृहस्थ बनो, अगर तुम्हें ऐसा करने में लज्जा आती हो तो निष्कपटभाव से लोगों के समक्ष यह बात स्पष्ट कहो कि मैं साधु नहीं हूँ, परन्तु साधुओं का सेवक हूँ, जो उत्तम साधु हैं उन्हें धन्य है, मैं तो उनके चरणों के रज की भी बराबरी नहीं कर सकता। मानसिक विकारों और तज्जन्य प्रवृत्तियों को रोक कर संयम परिपालन करना यह सर्वोत्तम मार्ग है और इसी मार्ग से आत्मिक अनन्तशक्तियों का विकास होकर उत्तम प्रकार की योग्यता प्राप्त होती है। यदि यथार्थ संयम पालन करने की सामर्थ्य का नाश होते दीख पड़े और मानसिक विकारों का स्रोत किसी प्रकार न घट सकता हो तो गृहस्थ बनकर गृहस्थधर्म की सुरक्षा करनी चाहिए, क्योंकि गृहस्थधर्म से भी आत्मीय सुधारा हो सकता है। कहा भी है किगारं पि अ आवसे नरे, अणुपुरि पाणेहिं संजए। समता सव्वत्थ सुब्बते, देवाणं गच्छे स लोगयं ।। भावार्थ-घर में निवास करने वाला गृहस्थ भी अनुक्रम से देशविरति का पालन और सर्वत्र समताभाव में प्रयत्न करता हुआ देवलोकों में जाता है। अर्थात् गृहस्थ घर में रहकर भी जिनेन्द्रोक्त श्रावक धर्म की भले प्रकार आराधना कर देव लोक की गति प्राप्त करता है और क्रमशः मोक्षगामी बनता है। इसी प्रकार मधुरशब्दों में करुणाभाव से उन हीनाचारियों को, जो कि संयम धर्म से पतित अनाचारी हैं, उपदेश देकर सुधारना चाहिये, किन्तु उनके दोष प्रकट करना न चाहिए, क्योंकि दोषियों के १६८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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