SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रंगीनवस्त्रधारण कर और बुगला भगत बन लोगों को ठगने वाले, अधोकर्मी आहारादि लेने वाले और वैरविरोध, कलह, मात्सर्य आदि दुर्गुणों में क्रीड़ा करने वाले हैं, वे उत्तमों की पंक्ति में क्या मध्यमों की पंक्ति में भी नहीं हैं, किन्तु उनको अधमों की पंक्ति में गिनना चाहिए। क्योंकि उत्तम पुरुषों की गिनती में तो वे ही सत्पुरुष आ सकते हैं, जो कि पूर्वोक्त अधम कार्यों से रहित हों। अर्थात् जो अमोही, ज्ञानी, ध्यानी, शान्त, जितेन्द्रिय, त्यागी, विरागी, निस्पृही, शास्त्रोक्त साधुक्रिया में तत्पर, विद्यावान्, विवेकसंपन्न, मध्यस्थ, तत्त्वदृष्टी, भवोद्विग्न, अमत्सरी, सर्व जीवहितचिन्तक, सद्गुणानुरागी, कलहोदीरणारहित, और संयम की उत्तरोत्तर खप करने वाले, मुनि हों वे उत्तमपदालंकृत हैं। ये उत्तम पुरुष स्वयं संसारसमुद्र से तरते हैं, और भव्यजीवों को निःस्वार्थवृत्ति से तारते हैं। जो स्वयं तरने के लिए समर्थ नहीं है, वह दूसरों को कैसे तार सकता है ?। अतएव उत्तमपुरुष ही स्वयं तिरने के लिए और दूसरों को तारने के लिए समर्थ हैं। जो उत्तमपुरुषों के और तीनलोक के ध्येय, पूज्य, माननीय, वन्दनीय, स्तवनीय, ईश्वरपदवाच्य, सर्वथा राग द्वेष रहित, केवलज्ञान से लोकालोक के स्वभाव के प्रकाशक, प्रमाणयुक्त, स्याद्वादशैलीयुक्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीनों पदों का ज्ञान गणधरों को देने वाले, निर्विकार, निर्बाध, परस्पर विरोधादिदोषरहित, शासननायक, शिवसुखदायक, परमकृपालु, कल्पवृक्ष चिन्तामणिरत्न कामधेनु और कामकुम्भ से भी अधिक दान देने वाले, धर्मचक्रवर्ति तीर्थंकर तीर्थस्थापक सेवामात्र से मोक्ष के फल देने वाले होते हैं, वे 'उत्तमोत्तम' पद विभूषित हैं। जिनका संसार में जन्म होने से लोगों के हृदय में सद्बुद्धि पैदा होती है, सब का दयालुस्वभाव होता है, वैर विरोध इर्ष्या लूट-खोस आदि दुर्गुण मिटते हैं, अनुकूल वर्षा होती है, दुर्मिक्ष का नाश और जल फूल फलादि में मधुरता बढ़ती है, त्रिलोकव्यापी उद्योत होता है, लोगों में धार्मिक भावना बढ़ती है, स्वपरिवार सहित इन्द्रों का गमनागमन होता है बहुत कहाँ तक कहा जाय जिनके समान रूप, सौभाग्य, लावण्य, भाग्योदय, गाम्भीर्य, धैर्य, दाक्षिष्ण्य, सदाचार, गुणानुराग, गुणसमूह, निर्ममता, समताभाव, निर्दोषीपन, सहनशीलता, स्वामित्व, जितेन्द्रियत्व, अतिशय, निर्भयता आदि श्री गुणानुरागकुलक १११
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy