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________________ १—जो लोग धर्मकर्म से रहित हैं, जिन्हें परलोक संबंधी दुर्गतियों का भय नहीं हैं, निरन्तर क्रूरकर्म और पापों का आचरण किया करते हैं, अधर्मकार्यों में आनन्द मानते हैं, लोगों को अनेक उद्वेग उपजाया करते हैं, देव, गुरु, और धर्म की निंदा किया करते हैं, दूसरे मनुष्यों को भी नित्य पापोपदेश दिया करते हैं, जिनके हृदय में दयाधर्म का अंकूर नहीं ऊगता अर्थात्-जो महा निर्दय परिणामी होते हैं, अगर किसी तरह कुछ द्रव्य प्राप्त भी हुवा तो उसे मदिरा, मांसभक्षण और परस्त्रीगमन आदि अनेक कुकार्य करने में खर्च करते हैं, वे लोग 'अधमाधम' हैं। २–जो महानुभाव परलोक से पराङ्मुख हो इन्द्रियों के विषयसुख के अभिलाषी बने रहते हैं, अर्थ और काम, इन दो पुरुषार्थों को ही उपार्जन करने में कटिबद्ध हैं, संसारवृद्धि का जिनको किञ्चिन्मात्र भय नहीं हैं, जन्म मरण संबंधि क्लेशों का जिन्हें ज्ञान नहीं है, जो दूसरों के दुःख को नहीं जानते, जो कर्मों के अशुभ फलों का दुःख देखते हुए भी सुख मानते हैं, जो पशुओं की तरह यथारुचि खाते, पीते, बोलते, और कुकर्म करते हैं, लोकनिन्दा का भी जिनको डर नहीं है, जो धार्मिक जनों की मस्करी (उपहास्य) करते हैं मोक्षमार्ग की निन्दा करते हैं, धर्मशास्त्रों की अवहेलना (अनादर) करते हैं, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की कथाओं के ऊपर श्रद्धा रखते हैं। जो लोग सदाचारियों की निन्दा हास्य कर, कहते हैं कि-परलोक किसने देखा?, कौन वहाँ से आया ?, किसने जीव, अजीव आदि पदार्थ देखे ?, किसने पुन्य पाप का फल भुगता?, स्वर्ग नरक मोक्ष कहाँ है ?। केशलुंचनादि, सब कार्य क्लेशरूप हैं, व्रतादि ग्रहण करना भोगों से वंचित रहना है, शास्त्रों का अभ्यास केवल कण्ठशोष है, धर्मोपदेश देना बिचारे मूर्ख लोगों को ठगना है, देव गुरु साधर्मिक भक्ति में द्रव्य लगाना व्यर्थ है। दुनिया के अन्दर अर्थ और काम को छोड़ कर दूसरा कोई पुरुषार्थ नहीं है। क्योंकि सब जगह अर्थवान् ही प्रशंसनीय है, लिखा भी है किमुत्तूण अत्यकामो, नो अन्नो कोई अत्थि परमत्थो। जस्स कए चइऊणं, दिहसुहमदिठ्ठ अहिलासो।।१।। १0८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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